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चन्द्रकला बाई बूँदी के कवि और दीवान कविराज राव गुलाबसिंह की दासी की पुत्री थीं। स्वयं चन्द्रकलाजी ने अपना परिचय इस प्रकार दिया है:-बरस पंच-दस की बय मेरी। कवि गुलाब की हूँ मैं चेरी॥ बालहिं ते कवि-संगति पाई। ताते तुम जोरन मोहिं आई॥
बाईजी का जन्म लगभग 1923 में हुआ। इन्होंने अपने समय मे सामयिक पत्रों में समस्या-पूर्त्तियाँ करने में विशेष भाग लिया। इनके सम्बन्ध में एक रोचक प्रसंग उल्लेख-योग्य है। उन्हीं दिनों बलदेवप्रसाद अवस्थी नाम के एक कवि अबध के राजा प्रताप बहादुरसिंह के यहाँ राजकवि के रूप में रहते थे। इनकी भी समस्या-पूर्त्तियाँ बड़ी टकसाली होती थीं। चन्द्रकलाजी पर बलदेव जी की कवित्त्व-शक्ति का बड़ा प्रभाव पड़ा और उन्होंने उनसे पत्र-व्यवहार करके बूँदी आने के लिए निमंत्रित किया। पत्र के साथ उन्होंने निम्नलिखित सवैया भी लिख भेजी थी:-
दीन-दयाल दया कै मिलो, दरसे बिनु बीतत हैं समै सोचन। सुद्ध सतोगुण ही के सने ते, बिसंकित सूल सनेह सकोचन॥ तोरि दियो तरु धीर-कगार के, ह्वै सरिता मनो बारि विमोचन। चन्द्रकला के बने बलदेवजी, बावरे से महा लालची लोचन॥
बलदेवजी बूँदी तो नहीं जा सके, किन्तु उन्होंने चन्द्रकला के प्रति अपना स्नेह प्रकट करने के लिए चन्द्रकला नाम की एक पुस्तक ही की रचना कर डाली। उसमें प्रत्येक पद्य के अंत में उन्होंने चन्द्रकला शब्द का प्रयोग किया। नमूने के रूप में एक पद्य देखिए:-
कहा ह्वै है कछू नहिं जानि परै सब अंग अनंग सों जोरि जरे। उतै बीथिन मैं बलदेव अचानक दीठि प्रकाशन प्रेम परे॥ हँसि कै गे अयान दया न दई है समान सवै हियरे के हरे। चले कौन ये जान लिये मन मो सिर मोर की चन्द्रकला को धरे॥
चन्द्रकलाजी के नायिका-नायक-अंकन में कुछ संकोचहीनता देखी जाती है, जिसका कारण वह वातावरण ही है जो पुरुष-कवियों द्वारा शताब्दियों पहले निर्मित हुआ था और जिसका उस समय भी प्रभाव था।