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दृग तुम चपलता तजि देहु।
गुजरहु चरनारबिन्दनि होय मधुप सनेहु॥
दसहुँ दिसि जित तित फिरहु किन सकल जग रस लेहु।
नै न मिलिहै अमित सुख कहुँ जो मिलै या गेहु॥
गहौ प्रीति प्रतीति दृढ़ ज्यों रटत चातक मेहु।
बनो चारु चकोर पिय मुख-चन्द छबि रस एहु॥