"बार बार मरती रहूँगी / संजय तिवारी" के अवतरणों में अंतर
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काल के कपाल पर
काल ही बता रहा है
एक प्रश्न बहुत सता रहा है
सिद्धार्थ
थोड़ी देर के लिए बन सको
तो बन जाओ कृष्ण
मुझे समझ लो पार्थ
सुना है
चौरासी लाख योनियों में हम सब भटकते हैं
हर यात्रा में कही न कही अटकते हैं
हर बार
करते हैं इंतजार
एक अच्छी देह पाने का
मनुष्य बन कर आने का
तुम तो ग्यानी हो? बताओ तो सही
हर शरीर की अमरता जताओ तो सही
सुना है? कही बाल्मीकि ने भी लिखा है
वेदो में भी यही दिखा है
शरीर नश्वर है और आत्मा है अमर
जिन ततवो से शरीर बना है
शरीर उन्ही तत्वों को खाता है
उन्ही ततवो से पोषण पाता है
आत्मा के निर्माण में लगा है जो तत्व
उसी में है उसका सत्व
जगत में सब शरीर को सुन्दर बनाने में लगे हैं
यह तय है? वह नश्वर है
फिर भी उसे ही लेकर सोये और जगे हैं
तुम्हरे पलायन में भी शरीर का ही दुःख था
देख कर रुग्ण और जर्जर काया
ऊपर की मरने वाली माया
तुम काँप गए थे
शरीर के कष्ट को तुम भाँप गए थे
शरीर में करने चले थे अमरता की तलाश
लेकर एक प्यास?
शरीर का तो पोषण संभव है
आत्मा निकल गयी तो मिलाना असंभव है
धरती का हर उपजा हुआ विकार
शरीर के पोषण का बनता है आहार
पांच तत्वों के शरीर के लिए
इसी प्रकृति से मिलते हैं वही पांच तत्व
जीतनी जरुरत उतना ही घनत्व
लेकिन आत्मा की खुराक कहा से पाओगे
उस तक पलायन के भाव में कैसे जाओगे
उसके लिए चाहिए भक्ति? समर्पण और ज्ञान
आत्मा को परम आत्मा से जोड़ने का विधान
वही अमर है जिसके लिए करना था प्रबंध
यही था मनुष्य योनि में जन्म का अनुबंध
नश्वर का दुःख तुम्हें खा गया
पलायन भा गया
तुम दशरथ पुत्र भरत को जानते हो?
भरत शब्द को पहचानते हो?
गुरु वशिष्ठ ने यूँ ही नहीं दिया था यह नाम
अद्भुत था भरत का काम
सृष्टि में आत्मा के
भरण पोषण की शक्ति लेकर आये थे
इसी शक्ति के कारण भरत कहलाये थे
नश्वर शरीर का पोषण तो हर राजा के वश में है
प्रजा की आत्मा का भरण भरत के यश में है
क्या आत्मा की खुराक
कभी बन सका तुम्हारा ज्ञान?
जीवन की पीड़ा और दुखो का
दे सके संधान?
सुनो
तुम न कृष्ण हो
न ही मैं पार्थ
मेरा तुमसे कुछ भी पूछना
है निरर्थक और व्यर्थ
फिर भी प्रश्न तो करती रहूंगी
तुम्हारे पलायन के दर्शन में
बार बार मरती रहूंगी।