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प्रिये! प्रीत की रीत तुमने न जानी।
विरह में समय ज्यों गुज़ारा,
हृदय जानता है हमारा।
हमेशा उदासीनता ही,
रही साथ बनकर सहारा।
व्यथा यह तुम्हारे लिए है कहानी।
प्रिये! प्रीत की रीत तुमने न जानी॥
तुम्हारे बिना चाँदनी भी,
धधकती हुई आग ही थी।
मिला है कहाँ एक पल सुख,
मिली बस, मिली वेदना ही।
मिलन-याचना किन्तु तुमने न मानी।
प्रिये! प्रीत की रीत तुमने न जानी॥
कहो, क्यों किया यह छलावा,
न पहले कभी यों हुआ था।
बताओ, तुम्हारे हृदय में,
उठा प्रश्न क्यों रूठने का।
कहो, आज क्यों, किसलिए रार ठानी।
प्रिये! प्रीत की रीत तुमने न जानी॥