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"माँ / सुधा चौरसिया" के अवतरणों में अंतर
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सदियों से जो तड़फड़ा रही है अधर में
जिसके नीचे की जमीन
और ऊपर का क्षितिज
छीन लिया गया है
वो हमारी माँ है
हमारी माँ
जो सदियों से पीती आ रही है
पिता का मानसिक विकार
अहम और व्यभिचार
पैबन्द लगाती आ रही है
संबंधों की दरार पर
सीती आ रही है अपने सपनों को
रफू करती आ रही है अपनी भावनाओं को
हमारी माँ
अपने वजूद की सलीब पर
लटकती है तमाम उम्र
और खींच कर
दफन कर दी जाती है कब्र में
हमारी माँ
जो पा न सकी एक क्षितिज
टुकड़ा भर जमीन
अपने अगले संस्करण के लिए
और गुम कर दी गयी पैशाचिक अंधकार में
हमें छीन लेनी है
उस जमीन
और उस क्षितिज को
जो हमारे लिए भी है
आओ हम जगे और जगाएँ
वरना यह कुम्भकरणी नींद
हमें सम्पूर्णतः लील लेगी...