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उम्मीद
दरिया के उफ़ान सी
समुद्र के ज्वार सी
सूर्य के प्रताप सी
चाँदनी की शीतलता सी
कभी लगती
सितारों की चमक सी
कभी नक्षत्रों के रहस्य सी
और
कभी ब्रह्मांड के विस्तार सी
मना करने
और समझाने पर भी
चली आती है
हमें दिलासा देती हुई।
हम रोकना चाहते हैं
अपने चारों तरफ़
मज़बूत घेराबंदी भी करते हैं
और भी न जाने
कितनी तरह के बंदोबस्त करते हैं
फिर भी
आ जाती है किसी ढीठ बच्चे की तरह
जो मना करने पर भी
नहीं मानता।
कभी-कभी हम भी
खुद को बड़ा समझ कर
कह देते हैं
चलो आ जाओ
और बड़े प्यार के साथ
हृदय से लगा लेते हैं उसे
और इस तरह
हमारी समझ में भी
पैदा होता है
एक भ्रम
कि, हम हो गए हैं
इनके घर
और ये हो गयी हैं
इसकी वासी
पर बसंत के
मीठे झोंके की तरह
कहाँ ठहरती है ये
एक जगह
और चल पड़ती है
किसी नए ठिकाने की ओर
ये ज़रा भी
विचलित नहीं होती
ये सोचकर
कि
किस तरह वीरान है
इसका पुराना घर
संदेश ये
हमेशा भिजवाती है
कि, मैं फिर आऊँगी
और अब के ठहरूँगी लंबा
एक क्षणिक मुस्कान
हमारे चेहरे पर आकर
ग़ायब होती है।
ये दिलासा देती है
कि इसकी आदत डाल ली जाए
और भ्रम में ही
रहा जाए
कि हम हो गए हैं
इनके घर
और ये हो गयी हैं इसकी वासी।