भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"मेरी हाँ / सुनीता शानू" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुनीता शानू |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
20:30, 9 जुलाई 2019 के समय का अवतरण
कई दिनों से
घर के बाहर
चक्कर लगाते-लगाते
एक दिन अचानक वह
ठहरा, झिझकता हुआ बोला
मैं डरते-डरते मुस्कुरा दी
बात ही कुछ ऎसी थी
जो खास न होते हुए भी
लगी कुछ खास सी
पर उसे कुछ खास बनाने को
लालायित थी मै भी
मेरा समर्पण भी
नही था कुछ कम
किन्तु, परन्तु, लेकिन
शब्दों का जमावड़ा मिटा
बात बस हाँ की थी
और हाँ में ठहर गई
अब वह लगाता नहीं चक्कर
घर के बाहर
घर में ही रहता है
पर
मेरी आँखे तलाशती हैं
उन बोलती आँखों को
जो मेरे लिये
कुछ भी कर सकने का
जुनून रखती थी
मेरी हाँ पाने के बाद
मगर आज
किन्तु, परन्तु, लेकिन में लिपट कर
रह गई--
मन पखेरु
मन पखेरु फिर उड़ चला
रोक सकी न दीवारें
तुम बाँधते रह गये
अशरीरी को साँकलों में।