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एक दिन आता है जब शरीर सिकुड़ कर अस्थि मात्र रह जाता है
जीवन के हर उल्लास पर भारी हो जाती हैं व्याधाएं
स्मृतियाँ लुका छिपी का खेल खेलती हर बार मात दे जाती हैं
एक मृत्यु है जिसकी शेष रहती है प्रतीक्षा
हर रोज़ सुनाई देते हैं जिसके पदचाप
विधाता अगर इतनी उम्र लिखी है खाते में
तो बस इतना करना
कि जब आए ऐसा समय
बचा रहे उससे आँख मिला पाने का सामर्थ्य !
जाऊँ तो साबूत ही
अपने समस्त अहम् , मोहबन्धों, और दुर्बलताओं के साथ
विखण्डित
एक मनुष्य की तरह