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वृथा में इतना मत अभिमान करो
मेरा हिमशीतल अहंकार अब नहीं रहा
तुम्हारी सुधियों की वही फागुनी हवा
वसंता-तप में यह मन पिघला
जैसे वर्फ पिघली ओ उपल फूल
देखो न कभी का मैं
मन को काट-काट यमुना पिघला रहा
भूलो न अतीत को इस तरह
इतना मत मान करो
वृथा में इतना मत अभिमान करो।
मुक्तकेश सिरहाने झुके हुए
कोमल एक स्पर्श काफी है
पथ में दूर-दूर खड़ी रहो तुम
केवल एक पहचान दृष्टि काफी है
तिरछे नयन, मुख फेर कर ही सही
एक स्नेह अपांग काफी है
मेरी विनय को इतना लघु मत करो
मैं बहुत ही थक गया
अहं का संबल भी न रहा
तुम भी वृथा मत अभिमान करो।
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