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"उन्नीस सौ सड़सठ / कुबेरनाथ राय" के अवतरणों में अंतर

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कविता १९६७ के चुनावोपरान्त अकाल के परिवेश में गत मई-जून में लिखी गयी है। मझे लगा कि कविगण जिस वसन्त की पालकी को ढो कर इस वर्ष लाये हैं, वह आहत, जर्जर और रुग्ण वसन्त है। मैंने अपनी सारी आशंकाओं को कविता में व्यक्त किया। इस बीच एक से एक जघन्य घटनाएँ घटी है और जघन्यतम घटना घटित हुई है 'राजभाषा संशोधन बिल' की। यह तो चीनी आक्रमण से भी पापपूर्ण घटना है।.....१९६७ के सम्पूर्ण चित्र को जब सामने रखता हूँ तो लगता है कि कविता प्रकाशित करा देना अनुचित नहीं होगा। कविता का पहला नाम था 'बीमार वसन्त की पालकी', पर ऐतिहासिक सन्दर्भ को स्पष्ट करने के लिए उपर्युक्त नाम चुना गया है।..... एक बात और, कविता में '२० बरस की छोरी' से तात्पर्य 'डेमोक्रेसी' से है और 'राजा' या 'रानी' या 'इन्द्र' शब्द व्यक्ति नहीं बल्कि 'सरकार' के प्रतीक है। -लेखक

(क) पूर्व रंग

भरत मुनि
"बिहरइ हंस जुआणओ।
प्राप्त सहचरी संग पुलक प्रसाधिताङ्ग :
स्वेच्छाप्राप्तविमाना विहरति हंस युवा।

सूत्रधार
अरे, इस बार तो बेकार ही 'चर्चरी' गाते हो।
खेत खाली है, खलिहान उदास है।
जंगल में मरे हुए पत्तों का ढेर है
जिस पर सुनसान भी दबे पाँव मन्द मन्द
चलता है- हाँ, कभी-कभी चक्कर
काटते बवण्डर घूमते है दिन में;
दोपहर मौत बतास में घूमती है।
गो कि,
हर साल पतझर में पत्ते गिरा करते थे
पर कुछ दिन बाद ही, फाल्गुनी, वधू बन
आ जाया करती थी और तब जंगल में
मंगल होता था
परन्तु, इस बार?
इस बार तो आकाश ही जवाब दे!
क्या होगा? क्या होगा? और
क्या खायेंगे? क्या गायेंगे?

भरत मुनि
(गीत)
आ गयी फागुनी!
सेमल पलाश से लाल हुआ जंगल
आ गयी फागुनी!
शोभा की लपट उठी, हताश यह मन गला,
सोने सा पिघल बहा, धरती अकास-गिरि- कानन मे, कितनी बार मरा
मैं कितनी बार जिया
रात के निराले चरवाहे का वंशी स्वर
बुलाता है बार-बार, अभिसारिका फागुनी
वधू-वेश राधिका फागुनी!

सूत्रधार
जरूर है वह अभिसारिका और शायद
तुम्हीं वह खूबसूरत नायक हो! अरे,
जब से तुम्हें इन्द्र ने निकाला दरबार से
जब से तुम्हे संगति मिली दुर्वासा की
तय से तुम्हारी आँखें और दिमाग कहीं चरने चले गये। इसी से दिखाई नहीं पड़ता है।
अरे, ये खेत है अथवा कफन ढकी लाश?
उदास है दुनिया, उदास है जहान और
तुमको रही है वरण कर वधूवेश फागुनी?
लीला वधू का शौक अभी बाकी है, सचमुच
बुढ़ापे में बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है!

भरत मुनि
अरे तेरे ललाट पर बचपन में
चेचक हुई थी, तो रुई और दूध का
फाहा दे देकर मैंने ही ठीक किया।
पर बेटा, तभी से तुम्हारी आँख तीसरी
जाती रही! शायद इसी से तू सब कुछ
देखकर भी देख नहीं पाता है। अभी-अभी
पीला पत्ता गिरा और वह कह गया :
"लो, मै भी चला; यह शिशिर भी गया,
आशीर्वाद है उन नन्हें और कोमल
पत्र-शिशुओं को, जो अब यहाँ आयेंगे।"
और वह फागुनी, अभी दो क्षण पूर्व
कंधे से खिसके आँचल सँभालती
कहती गयी है : "अभी आती हूँ। पर देखूँ
इस बार भी क्या पहचान लेते हो मुझे
सिर्फ वेणी के फूलों की गंध से।"

सूत्रधार
मैंने देखा नही, सुना नहीं, हम नयी
पीढ़ी के, देखते नहीं सुनते नहीं
हम तो सिर्फ पढ़ते और जानते हैं।
देखना सुनना और दिनरात मग्‍न- नयनों के युद्ध में रहना यह सब तो
उस युग की आवारागर्दी है जब कि
मृगमांस, मेरय, दही और मधु
के साथ कोमलवपु षोडशी और
'मेघदूत' काव्य-सर्वजन-सुलभ थे।
परन्तु भई,
राशन कार्डों के युग में आवारागर्दी तो
चल नहीं सकती। इसी हमारी तो
आदत नहीं, नयनों की भाषा पढ़ने की।
हम तो पढ़ा करते हैं इशारे बवण्डर के
जो घूर्मित पीत पत्रों में काटता है
चक्कर और ढोता है शब्दों की शिविका।
और इस बार?
इस बार तो समझ लो कि पेड़ों की
डाल-डाल पर वाक्य और शब्द ही
गुच्छे के गुच्छे लटक जायेंगे और मैं
पढूँगा उन्हें जीभर करूँगा प्यार।
पर तुम मोह-मूढ़ गाते रहो 'चर्चरी'
खेत खाली है, खलिहान खाली है
किस्मत खाली है, दिल खाली है
क्या होगा?
.......आकाश ही जवाब दे।
(नेपथ्य में दो स्वर प्रश्नोत्तर रूप में)
ॐ कृतो स्मर!
(हे प्रभु, हमें अब स्मरण करो!)
ॐ कृतं स्मर
(हे प्रभु, हमारे कर्मों का स्मरण करो।)

(ख) संहार-ऋतु

सूत्रधार
खबर है, खबर है, सुनो तुम ध्‍यान से
सूरज और शिशिर में दारुण संग्राम हुआ
सूरज अकेले लड़ा; अंग-अंग-आहत जर्जर;
पर तटस्थ रही इन्द्र की वारिद-वाहिनी;
हरीतिमा हार गयी, जीवन हार गया;
कामरूप मधुवन के कुलीन नीच
भृत्यों ने धोखा दिया; खड़े रहे;
ऐरावत खड़ा-खड़ा लेता रहा मौज
जूझता रहा सूरज अकेला; परन्तु
धरती का धूम और पानी सोखकर
दिन-ब-दिन मोटे हो रहे मेघों को
तमाशबीन मेघों को शर्म नही?
तारुण संग्राम हुआ- ताल पर ताल
चोट पर चोट, घूँसे पर घूँसा;
दलक गये जमीन और आसमान!
परन्तु सब व्यर्थ हुआ! व्यर्थ हुआ!
स्थापित, जमा हुआ, सभ्य ऐरावत भला
पथचारी पदचारी सूरज की पाँत में
खड़ा हो क्यो करे समर? अरे, वह तो
रानी के छत्र और चामर ढोता है!
सूरज तो दिन भर पैदल खटता है,
मामूली है, मजूर है, घोर हिन्दुस्तानी है!
दोनों में जलज और जोंक का नाता है।
इसी से ऐरावत खड़ा रहा मौज से
और सूरज अकेला जूझता रहा!
खबर है सुनो सुनो ध्यान से
सूरज आज घायल है, अंग-अंग जर्जर है।
इसी से वसन्त है रूठ गया; उसका भी
दिल ही टूट चुका सूरज की हार सुन।
अब नहीं फागुन में फूटेंगे फूल कभी
मलिन वस्त्र दीनमुख कह गयी
फागुन की फाल्गुनी, आज ही सुबह-सुबह
'वसन्त बीमार है, इस वर्ष नहीं आयेगा।'

(नेपथ्य में कोमल स्वर)
[द्रुमाः सुपुष्या सलिल समद्मं
स्त्रियः सकामा षवनः सुगन्धिः।
सुखाः प्रदोषा दिवाश्च रम्याः
सर्व प्रियं, चारुतरं वसन्ते।]

ओह-ओ! तो बूढे भरत मुनि गाते हैं
बूढ़ा लाचार है आदत से क्या करे?
मैं भी द्वापर में खूब गाना गाता था
ओह, कैसा खूबसूरत वह द्वापर था!
मेरे शीश पर मकरचूड़ स्वर्णमुकुट
हाथ में फूलों का धनुष बाण
पुरी का समुद्रतट; मोहन और मारण के
वंशी स्वर; आतर्त्‍ और वासनाविह्वल;
कर रही लहरों में स्नान वसनहीन- चांदनी- हाँ, मिस चन्द्रमा मुखर्जी, इसी से
समुद्रतट आर्त्‍त और वासनाविह्वल!
मेरे शीश पर मकरचूड़ स्वर्णमुकुट
मेरे हाथ में ... पर वे दिन और थे!
मैंने अपने मन से कहा : पर वे दिन
और थे; हम और तुम और थे।
पर आज? आज तो मेरे हृदय में
पल रहा क्रोध का एक महाकाव्य,
इसी से मुझे तो सारा रसशास्‍त्र ही
भूल गया बिल्कुल। और इसी से
फागुन में अगहन का गान मैं गाऊँगा।
'हँसुए के व्याह में खुरपी का गीत'
नहीं नहीं हँसुए का गान, शुद्ध शुद्ध
लोहे की हँसिया का विरह काव्य!
वक्र और धारदार लोहे का विरह काव्य!

"अरे भाई, अगहन रे!
मेरे आँगन चन्दन का पेड़
उस पर बैठे कोई न काग
मेरे माथे लाल सिन्दूर
कोयला लिक्खा मेरा भाग
खाली खाली हो गये खेत
सूना सूना रहा सिवान
खाली खाली रह गया पेट
खाली खाली साँझ बिहान
पियवा गया रे राउरकेला, छाती पर उबले अदहन रे!
यह निर्मोही अगहन रे!"
कहो मित्र? कैसा रहा गान यह?
क्या कहा? 'बन्द करो असमय यह,
फागुन मे अगहन का गान यह,
बिल्कुल बेमौसम है', अच्छी बात है।
मान लिया मौसम का नाट्यशास्‍त्र;
ठीक है। सुनो तब फागुनी काव्य :
दूर कहीं बज रही वंशी, हवा भी
कोमल है, पुलकित है; कालिदास कविश्रेष्ठ
गाते 'ऋतु से संहार' के श्लोक कहीं।
आज 'संहार ऋतु' तुम भी, लो सुनो :

(गीत)
"बीस बरस की छोरी!
मेरे कंधे पड़ा जुआ, गले प्यार की डोरी
वन में आज पलाश रो रहा
शीश पटक कर पाप धो रहा
पटा खून से जंगल जंगल
फिर भी,
कोई गौरव-बीज बो रहा
गौरव जब फसल उगेगी
काट बटोरेगी यह गोरी।
ओ री! बीस बरस की छोरी!"
सुन चुके फागुन के काव्य तुम?
ओह यह जनता है; आदत पड़ी है
उत्सव मनाने की, फागुन का नाम ले
सालभर जीती है। क्यों नहीं?
'एहि आशा अट्क्यो रहै
अलि गुलाब के मूल...'
कवि ने कहा है, सो ठीक है।
पर इस बार तो वसन्त बीमार है
ताजी खबर है, कह दिया घर घर
फिर भी जनता है झूम झूम फाग
गायेगी; आदत है; सुनो सुनो
दूर कहीं ढोलक है गमक रही
अथवा घुड़क रहा तबला, सुनो सुनो
(नेपथ्य में होली-स्वर)

(गीत)
"सुन मन्दोदरि रानी, सुन दशकंधर राजा
कपिपति रीछ निशाचर राजा
सभा विराजे सकल समाजा
राम तुम्हारे लखन तुम्हारे
आकाश बजाये बाजा
भये पवनसुत दास तुम्हारे जगत भरे अब पानी।
सुन मन्दोदरि रानी
सुन दशकंधर राजा!
छज्जे छज्जे मोर नाचता, आँख आँख में पानी
ऊपर ऊपर काल नाचता, रोवें चौदह प्रानी
चौके चौके बिल्ली रोवे, वन में रोवे काग।
राह राह में मानुष रोवे, फूटा सबका भाग।
'पूरब पश्चिम आसे
तब सिंहासन पासे' खर सूकर की बनी है जोरी
सकल सभा की मति भई भोरी।
दो कौड़ी के बिकी पीठ रे, धिक धिक हाय जवानी।
सुन मंदोदरि रानी
सुन दशकंधर राजा!
आकाश बजाये बाजा!"
(विविध स्वर : क्रुद्ध भीड़ जैसा कोलाहल)
"तब कहो क्या करे? क्या करे?
गायें हम फागुन के गान अब?
मँहक उठा माधव मास अब?"
"बन्द करो बन्द करो वर्त्‍तमान!
थूको अतीत पर केवल भविष्य ही
गतिशील चर्चा के योग्य है। अतः
....................................
"क्या गाओगे?
क्या गाओगे?"
"क्या खाओगे?
क्या खाओगे?"
"भूख-भूख, भूख-भूख
भूख ही गायेंगे, भूख ही खायेंगे"
"आत्मा की खुराक है भूख!
इतिहास की खुराक है भूख!
मुक्ति की खुराक है भूख!"
"हाँ जी, हाँ जी, बात ठीक कहते हो
पर शोर मत करो क्योंकि-"
"करेंगे शोर, निश्चय करेंगे!
भूख, भूख, भूख!
शब्द की भूख, सरस्वती कैद है, मुक्त करो!
स्पर्श की भूख, शोभा कैद है, मुक्त करो!
अन्न की भूख; लक्ष्मी कैद है, मुक्त करो!
करेंगे शोर निश्चय करेंगे।"
(धीरे-धीरे कोलाहल और क्रुद्ध स्वर डूब जाते हैं)
सुन लिया होली का फागुन का,
मँह मँह माधव मास का गान?
इस बार तर्ज कुछ और है! ढंग ही
दूसरा है! विकसित हो रहा क्रोध का,
रोष का नूतन रसशास्त्र;
अतः मै भी करूँगा शोर करूँगा!
करूँगा, शोर करूँगा!

(ग) आगमनी : जन्मयंत्रणा

सूत्रधार
शिशिर और सूरज के दारुण समर में
इन्द्र के भृत्यों ने विश्वास और सत्य की
हत्या की। फलतः बसन्त के अंग अंग
व्रण है, घाव है, जर्जर तन टूटा मन
वसन्त आज शय्याग्रस्त है। परन्तु यह
आश्‍चर्यभरी उसकी पाती आयी है,
जो डाल डाल, पत्र पत्र, फूल फूल
शब्द बन टँग गयी और मैं हूँ जो
इस लिपि को खूब पहचानता हूँ।
अत: सुनो शब्द सुनो :
"यह जो मैं दर्द से चिल्ला रहा
यह मेरी मृत्युयन्त्रणा नहीं, मित्र,
यह तो मैं जन्म ले रहा हूँ पुनः
"मेरे अन्दर है एक चिर नवीन
"मेरे अन्दर है एक चिर नवीन
द्विजन्मा बहुजन्मा तेजस्वी 'मैं'
जो लेता है जन्म पुनः पुनः
और हर बार काल और मन की अंध- गर्भ गुहा से निकलते समय
अकथ पीड़ा पाता है
दर्द से छटपटाता है।"
"देख मेरी छाती में
दुश्मन की गोलियों के घाव,
देख कर मेरे माथे पर
दुश्मन को लाठियों के प्रहार
कहीं तुम्हें गलतफहमी न हो, मित्र,
कि मैं अब तब हूँ यम की प्रतीक्षा में।
यही तो रहस्य है दोस्त, ज्ञान गुह्य,
कि जो धीर हैं, बुद्ध हैं, युधिष्ठिर हैं
वे सदेह स्वर्ग जाते हैं; परन्तु मैं हूँ
कर्ण रश्मिरथी या पार्थ महारथी,
हमारे लिए नहीं इन्द्रयान आता है
मैं तो पुनः पुनः मृत्यु की भूमिका में
जन्म की यन्त्रणा भोगता हूँ।
अतः यह मेरी मृत्युयंत्रणा नहीं, मित्र।
लोग सीधे सादे है, समझते हैं कि
वह मर गया दुश्मन की गोली खा,
वह मर गया लाठियों की चोट से,
वह मर गया भूख से तड़प तड़प
सड़क पर, जुलूस में अथवा घर के
दरवाजे पर;- लावारिस लाश वह!
कुत्तों ने नोच नोच खाया उसे,
गृद्धों ने उत्सव के दीप जला
डटकर शवभोज का मज़ा लिया।
इन सारे महोत्सवों के बावजूद, मैं
कैसे समझाऊँ तुम्हें मित्र, कि यह
मैं जन्म ले रहा हूँ, यह है मेरा
दिव्य और विकराल अवतरण,
परम धीर तेजोमय अवतरण!"
(कवि का प्रवेश)
कवि
क्यों भाई, तोता भट्टजी, सूत्रधार,
क्या यह पढ़ते हो? कौन सा नाटक
आज खेलोगे? मैंने लिखा है एक
व्यायोग 'नूरजहाँ' खेलोगे इसे?
और कहाँ है तुम्हारी वह मैना वधू?

सूत्रधार
मैना को भेज दिया पीहर वहीं पर
खाली पेट चहका करे! रुपये में
छ: छटाँक, अपना पेट ही पहाड़ है!
दूसरे सवाल का जवाब पढ़ लो,
यह रही पाती सखा वसन्त की!

कवि
यह तो सादा कागज है केवल!
जिसका अर्थ है मौन या प्रश्न चिह्न।

सूत्रधार
मौन नहीं शोर। प्रश्न चिह्नों का शोर!
लगाओ अब अर्थ तुम; मैं तो चला!

कवि
अरे चल दिये? 'भरतवाक्य' अभी बाकी है!
अच्छा, तो मैं ही इसे कह दूँ!
ॐ क्रतो स्मर! ॐ कृत स्मर!!

"हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।"