"प्याला / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 14: | पंक्ति 14: | ||
में थी मेरी सत्ता विलीन, | में थी मेरी सत्ता विलीन, | ||
इस मूर्तिमान जग में महान | इस मूर्तिमान जग में महान | ||
− | था मैं विलुप्त कल रूप- | + | था मैं विलुप्त कल रूप-हीन, |
− | कल मादकता | + | कल मादकता की भरी नींद |
थी जड़ता से ले रही होड़, | थी जड़ता से ले रही होड़, | ||
किन सरस करों का परस आज | किन सरस करों का परस आज | ||
− | करता जाग्रत जीवन नवीन ? | + | करता जाग्रत जीवन नवीन? |
मिट्टी से मधु का पात्र बनूँ-- | मिट्टी से मधु का पात्र बनूँ-- | ||
− | किस कुम्भकार का यह निश्चय ? | + | किस कुम्भकार का यह निश्चय? |
मिट्टी का तन,मस्ती का मन, | मिट्टी का तन,मस्ती का मन, | ||
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय ! | क्षण भर जीवन-मेरा परिचय ! | ||
पंक्ति 42: | पंक्ति 42: | ||
जो रस लेकर आया भू पर | जो रस लेकर आया भू पर | ||
− | जीवन-आतप ले गया | + | जीवन-आतप ले गया छीन, |
− | खो गया पूर्व गुण | + | खो गया पूर्व गुण,रूप, रंग |
हो जग की ज्वाला के अधीन; | हो जग की ज्वाला के अधीन; | ||
मैं चिल्लाया 'क्यों ले मेरी | मैं चिल्लाया 'क्यों ले मेरी | ||
मृदुला करती मुझको कठोर ?' | मृदुला करती मुझको कठोर ?' | ||
− | लपटें बोलीं,'चुप, बजा-ठोंक | + | लपटें बोलीं, 'चुप, बजा-ठोंक |
लेगी तुझको जगती प्रवीण.' | लेगी तुझको जगती प्रवीण.' | ||
− | यह,लो, मीणा बाज़ार | + | यह,लो, मीणा बाज़ार लगा, |
होता है मेरा क्रय-विक्रय. | होता है मेरा क्रय-विक्रय. | ||
मिट्टी का तन,मस्ती का मन, | मिट्टी का तन,मस्ती का मन, | ||
पंक्ति 64: | पंक्ति 64: | ||
ठुकराया मैंने दोनों को | ठुकराया मैंने दोनों को | ||
रखकर अपना उन्नत ललाट, | रखकर अपना उन्नत ललाट, | ||
− | बिक,मगर | + | बिक, मगर गया मैं मोल बिना |
− | जब आया मानव सरस | + | जब आया मानव सरस हृदय. |
मिट्टी का तन,मस्ती का मन, | मिट्टी का तन,मस्ती का मन, | ||
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय ! | क्षण भर जीवन-मेरा परिचय ! | ||
पंक्ति 77: | पंक्ति 77: | ||
चिर जीवन औ' चिर मृत्यु जहाँ, | चिर जीवन औ' चिर मृत्यु जहाँ, | ||
लघु जीवन की चिर प्यास कहाँ; | लघु जीवन की चिर प्यास कहाँ; | ||
− | जो फिर-फिर | + | जो फिर-फिर होठों तक जाता |
वह तो बस मदिरा का प्याला; | वह तो बस मदिरा का प्याला; | ||
मेरा घर है अरमानो से | मेरा घर है अरमानो से | ||
पंक्ति 90: | पंक्ति 90: | ||
अपने मानस की मस्ती से | अपने मानस की मस्ती से | ||
उफनाया करता आठयाम; | उफनाया करता आठयाम; | ||
− | कल क्रूर काल के | + | कल क्रूर काल के गालों में |
जाना होगा--इस कारण ही | जाना होगा--इस कारण ही | ||
कुछ और बढा दी है मैंने | कुछ और बढा दी है मैंने | ||
अपने जीवन की धूमधाम; | अपने जीवन की धूमधाम; | ||
− | इन मेरी | + | इन मेरी उल्टी चालों पर |
संसार खड़ा करता विस्मय. | संसार खड़ा करता विस्मय. | ||
मिट्टी का तन,मस्ती का मन, | मिट्टी का तन,मस्ती का मन, | ||
पंक्ति 110: | पंक्ति 110: | ||
है किसी दग्ध-उर की पुकार; | है किसी दग्ध-उर की पुकार; | ||
कुछ आग बुझाने को पीते | कुछ आग बुझाने को पीते | ||
− | ये भी,कर मत इन पर संशय. | + | ये भी, कर मत इन पर संशय. |
मिट्टी का तन,मस्ती का मन, | मिट्टी का तन,मस्ती का मन, | ||
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय ! | क्षण भर जीवन-मेरा परिचय ! | ||
पंक्ति 116: | पंक्ति 116: | ||
८. | ८. | ||
− | मैं देख चुका जा | + | मैं देख चुका जा मस्जिद में |
झुक-झुक मोमिन पढ़ते नमाज़, | झुक-झुक मोमिन पढ़ते नमाज़, | ||
पर अपनी इस मधुशाला में | पर अपनी इस मधुशाला में | ||
पीता दीवानों का समाज; | पीता दीवानों का समाज; | ||
− | यह पुण्य कृत्य,यह पाप | + | यह पुण्य कृत्य,यह पाप कर्म, |
− | कह भी दूँ,तो क्या सबूत; | + | कह भी दूँ, तो क्या सबूत; |
कब कंचन मस्जिद पर बरसा, | कब कंचन मस्जिद पर बरसा, | ||
कब मदिरालय पर गाज़ गिरी ? | कब मदिरालय पर गाज़ गिरी ? | ||
पंक्ति 148: | पंक्ति 148: | ||
संसृति की नाटकशाला में | संसृति की नाटकशाला में | ||
है पड़ा तुझे बनना ज्ञानी, | है पड़ा तुझे बनना ज्ञानी, | ||
− | है पड़ा | + | है पड़ा मुझे बनना प्याला, |
होना मदिरा का अभिमानी; | होना मदिरा का अभिमानी; | ||
संघर्ष यहाँ किसका किससे, | संघर्ष यहाँ किसका किससे, | ||
पंक्ति 155: | पंक्ति 155: | ||
समझा कुछ अपनी नादानी ! | समझा कुछ अपनी नादानी ! | ||
छिप जाएँगे हम दोनों ही | छिप जाएँगे हम दोनों ही | ||
− | लेकर | + | लेकर अपने-अपने आशय. |
मिट्टी का तन,मस्ती का मन, | मिट्टी का तन,मस्ती का मन, | ||
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय ! | क्षण भर जीवन-मेरा परिचय ! | ||
पंक्ति 162: | पंक्ति 162: | ||
पल में मृत पीने वाले के | पल में मृत पीने वाले के | ||
− | + | कर से गिर भू पर आऊँगा, | |
जिस मिट्टी से था मैं निर्मित | जिस मिट्टी से था मैं निर्मित | ||
उस मिट्टी में मिल जाऊँगा; | उस मिट्टी में मिल जाऊँगा; | ||
पंक्ति 173: | पंक्ति 173: | ||
मिट्टी का तन,मस्ती का मन, | मिट्टी का तन,मस्ती का मन, | ||
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय ! | क्षण भर जीवन-मेरा परिचय ! | ||
+ | </poem> |
22:23, 24 अक्टूबर 2019 का अवतरण
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
१.
कल काल-रात्रि के अंधकार
में थी मेरी सत्ता विलीन,
इस मूर्तिमान जग में महान
था मैं विलुप्त कल रूप-हीन,
कल मादकता की भरी नींद
थी जड़ता से ले रही होड़,
किन सरस करों का परस आज
करता जाग्रत जीवन नवीन?
मिट्टी से मधु का पात्र बनूँ--
किस कुम्भकार का यह निश्चय?
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
२.
भ्रम भूमि रही थी जन्म-काल,
था भ्रमित हो रहा आसमान,
उस कलावान का कुछ रहस्य
होता फिर कैसे भासमान.
जब खुली आँख तब हुआ ज्ञात,
थिर है सब मेरे आसपास;
समझा था सबको भ्रमित किन्तु
भ्रम स्वयं रहा था मैं अजान.
भ्रम से ही जो उत्पन्न हुआ,
क्या ज्ञान करेगा वह संचय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
३.
जो रस लेकर आया भू पर
जीवन-आतप ले गया छीन,
खो गया पूर्व गुण,रूप, रंग
हो जग की ज्वाला के अधीन;
मैं चिल्लाया 'क्यों ले मेरी
मृदुला करती मुझको कठोर ?'
लपटें बोलीं, 'चुप, बजा-ठोंक
लेगी तुझको जगती प्रवीण.'
यह,लो, मीणा बाज़ार लगा,
होता है मेरा क्रय-विक्रय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
४.
मुझको न ले सके धन-कुबेर
दिखलाकर अपना ठाट-बाट,
मुझको न ले सके नृपति मोल
दे माल-खज़ाना, राज-पाट,
अमरों ने अमृत दिखलाया,
दिखलाया अपना अमर लोक,
ठुकराया मैंने दोनों को
रखकर अपना उन्नत ललाट,
बिक, मगर गया मैं मोल बिना
जब आया मानव सरस हृदय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
५.
बस एक बार पूछा जाता,
यदि अमृत से पड़ता पाला;
यदि पात्र हलाहल का बनता,
बस एक बार जाता ढाला;
चिर जीवन औ' चिर मृत्यु जहाँ,
लघु जीवन की चिर प्यास कहाँ;
जो फिर-फिर होठों तक जाता
वह तो बस मदिरा का प्याला;
मेरा घर है अरमानो से
परिपूर्ण जगत् का मदिरालय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
६.
मैं सखी सुराही का साथी,
सहचर मधुबाला का ललाम;
अपने मानस की मस्ती से
उफनाया करता आठयाम;
कल क्रूर काल के गालों में
जाना होगा--इस कारण ही
कुछ और बढा दी है मैंने
अपने जीवन की धूमधाम;
इन मेरी उल्टी चालों पर
संसार खड़ा करता विस्मय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
७.
मेरे पथ में आ-आ करके
तू पूछ रहा है बार-बार,
'क्यों तू दुनिया के लोगों में
करता है मदिरा का प्रचार ?'
मैं वाद-विवाद करूँ तुझसे
अवकाश कहाँ इतना मुझको,
'आनंद करो'--यह व्यंग्य भरी
है किसी दग्ध-उर की पुकार;
कुछ आग बुझाने को पीते
ये भी, कर मत इन पर संशय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
८.
मैं देख चुका जा मस्जिद में
झुक-झुक मोमिन पढ़ते नमाज़,
पर अपनी इस मधुशाला में
पीता दीवानों का समाज;
यह पुण्य कृत्य,यह पाप कर्म,
कह भी दूँ, तो क्या सबूत;
कब कंचन मस्जिद पर बरसा,
कब मदिरालय पर गाज़ गिरी ?
यह चिर अनादि से प्रश्न उठा
मैं आज करूँगा क्या निर्णय ?
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
९.
सुनकर आया हूँ मंदिर में
रटते हरिजन थे राम-राम,
पर अपनी इस मधुशाला में
जपते मतवाले जाम-जाम;
पंडित मदिरालय से रूठा,
मैं कैसे मंदिर से रूठूँ ,
मैं फर्क बाहरी क्या देखूं;
मुझको मस्ती से महज काम.
भय-भ्रान्ति भरे जग में दोनों
मन को बहलाने के अभिनय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
१०.
संसृति की नाटकशाला में
है पड़ा तुझे बनना ज्ञानी,
है पड़ा मुझे बनना प्याला,
होना मदिरा का अभिमानी;
संघर्ष यहाँ किसका किससे,
यह तो सब खेल-तमाशा है,
यह देख,यवनिका गिरती है,
समझा कुछ अपनी नादानी !
छिप जाएँगे हम दोनों ही
लेकर अपने-अपने आशय.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !
११.
पल में मृत पीने वाले के
कर से गिर भू पर आऊँगा,
जिस मिट्टी से था मैं निर्मित
उस मिट्टी में मिल जाऊँगा;
अधिकार नहीं जिन बातों पर,
उन बातों की चिंता करके
अब तक जग ने क्या पाया है,
मैं कर चर्चा क्या पाऊँगा ?
मुझको अपना ही जन्म-निधन
'है सृष्टि प्रथम,है अंतिम ली.
मिट्टी का तन,मस्ती का मन,
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय !