भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"हवा शहर की / शशि पुरवार" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 10: पंक्ति 10:
 
पंछी मन ही मन घबराये।
 
पंछी मन ही मन घबराये।
  
यूँ, जाल बिछाये बैठे है
+
यूँ, जाल बिछाये बैठे हैं
 
सब आखेटक मंतर मारे
 
सब आखेटक मंतर मारे
 
आसमान के काले बादल
 
आसमान के काले बादल
जैसे, जमा हुये है सारे
+
जैसे, जमा हुये हैं सारे
  
 
छाई ऐसी घनघोर घटा
 
छाई ऐसी घनघोर घटा
पंक्ति 19: पंक्ति 19:
  
 
कुकुरमुत्ते सा, उगा हुआ है
 
कुकुरमुत्ते सा, उगा हुआ है
गली गली, चौराहे खतरा
+
गली गली, चौराहे ख़तरा
 
लुका छुपी का, खेल खेलते
 
लुका छुपी का, खेल खेलते
 
वध जीवी ने, पर है कतरा
 
वध जीवी ने, पर है कतरा
  
बेजान तन पर नाचते है
+
बेजान तन पर नाचते हैं
 
विजय घोष करते, यह साये।  
 
विजय घोष करते, यह साये।  
  
पंक्ति 32: पंक्ति 32:
  
 
पंछी उड़ता नीलगगन में
 
पंछी उड़ता नीलगगन में
किरणे नयी सुबह ले आए।
+
किरणे नयी सुबह ले आये।
 
</poem>
 
</poem>

09:48, 22 जून 2020 के समय का अवतरण

हवा शहर की बदल गयी
पंछी मन ही मन घबराये।

यूँ, जाल बिछाये बैठे हैं
सब आखेटक मंतर मारे
आसमान के काले बादल
जैसे, जमा हुये हैं सारे

छाई ऐसी घनघोर घटा
संकट, दबे पाँव आ जाये ।

कुकुरमुत्ते सा, उगा हुआ है
गली गली, चौराहे ख़तरा
लुका छुपी का, खेल खेलते
वध जीवी ने, पर है कतरा

बेजान तन पर नाचते हैं
विजय घोष करते, यह साये।

हरे भरे वन, देवालय पर
सुंदर सुंदर रैन बसेरा
यहाँ गूंजता मीठा कलरव
ना घर तेरा ना घर मेरा

पंछी उड़ता नीलगगन में
किरणे नयी सुबह ले आये।