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"अश्वत्थ / प्रभाकर माचवे" के अवतरणों में अंतर
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अटके हैं ज्यों जीर्ण देह में | अटके हैं ज्यों जीर्ण देह में | ||
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मधु-ऋतु की सकाल अरुणाली | मधु-ऋतु की सकाल अरुणाली | ||
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पर मैं वैसा ही बाकी हूँ | पर मैं वैसा ही बाकी हूँ | ||
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16:58, 2 अगस्त 2020 का अवतरण
1.
सन्ध्या की उदास छायाएँ
पीपल का यह सघन बसेरा
लौट रहा खग-कुल आकुल-मन
कोलाहल मय प्रति कोटर-वन
सुदूर एकाकी तारक ज्यों
गीत अकेला सा यह मेरा...
2.
भूरे नभ में रात उतरती
शिशिर-साँझ की धुँधली वेला
पीपल का विराट श्यामन वपु
खड़ा हुआ कंकाल अकेला
एक चील का क्षीण घोंसला
क्षीण, तीज की पीत शशिकला
अटके हैं ज्यों जीर्ण देह में
बचा मोह का तन्तु विषैला ।
3.
मधु-ऋतु की सकाल अरुणाली
उसी एक पीपल की झाँकी
पुन: पनप कर हरी कोंपलों ने
विवसन शाखें भी ढाँकी
फिर से आ बसते हैं पाखी
जग में लहरी नूतनता की
पर मैं वैसा ही बाकी हूँ
वैसी कड़ियाँ एकाकी ।