"रश्मिरथी / चतुर्थ सर्ग / भाग 6" के अवतरणों में अंतर
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'भुज को छोड़ न मुझे सहारा किसी और सम्बल का, | 'भुज को छोड़ न मुझे सहारा किसी और सम्बल का, | ||
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बड़ा भरोसा था, लेकिन, इस कवच और कुण्डल का, | बड़ा भरोसा था, लेकिन, इस कवच और कुण्डल का, | ||
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पर, उनसे भी आज दूर सम्बन्ध किये लेता हूँ, | पर, उनसे भी आज दूर सम्बन्ध किये लेता हूँ, | ||
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देवराज! लीजिए खुशी से महादान देता हूँ. | देवराज! लीजिए खुशी से महादान देता हूँ. | ||
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'यह लीजिए कर्ण का जीवन और जीत कुरूपति की, | 'यह लीजिए कर्ण का जीवन और जीत कुरूपति की, | ||
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कनक-रचित निःश्रेणि अनूपम निज सुत की उन्नति की. | कनक-रचित निःश्रेणि अनूपम निज सुत की उन्नति की. | ||
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हेतु पांडवों के भय का, परिणाम महाभारत का, | हेतु पांडवों के भय का, परिणाम महाभारत का, | ||
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अंतिम मूल्य किसी दानी जीवन के दारुण व्रत का. | अंतिम मूल्य किसी दानी जीवन के दारुण व्रत का. | ||
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'जीवन देकर जय खरीदना, जग मे यही चलन है, | 'जीवन देकर जय खरीदना, जग मे यही चलन है, | ||
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विजय दान करता न प्राण को रख कर कोई जन है. | विजय दान करता न प्राण को रख कर कोई जन है. | ||
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मगर, प्राण रखकर प्रण अपना आज पालता हूँ मैं, | मगर, प्राण रखकर प्रण अपना आज पालता हूँ मैं, | ||
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पूर्णाहुति के लिए विजय का हवन डालता हूँ मैं. | पूर्णाहुति के लिए विजय का हवन डालता हूँ मैं. | ||
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'देवराज! जीवन में आगे और कीर्ति क्या लूँगा? | 'देवराज! जीवन में आगे और कीर्ति क्या लूँगा? | ||
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इससे बढ़कर दान अनूपम भला किसे, क्या दूँगा? | इससे बढ़कर दान अनूपम भला किसे, क्या दूँगा? | ||
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अब जाकर कहिए कि 'पुत्र! मैं वृथा नहीं आया हूँ, | अब जाकर कहिए कि 'पुत्र! मैं वृथा नहीं आया हूँ, | ||
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अर्जुन! तेरे लिए कर्ण से विजय माँग लाया हूँ.' | अर्जुन! तेरे लिए कर्ण से विजय माँग लाया हूँ.' | ||
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'एक विनय है और, आप लौटें जब अमर भुवन को, | 'एक विनय है और, आप लौटें जब अमर भुवन को, | ||
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दें दें यह सूचना सत्य के हित में, चतुरानन को, | दें दें यह सूचना सत्य के हित में, चतुरानन को, | ||
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'उद्वेलित जिसके निमित्त पृथ्वीतल का जन-जन है, | 'उद्वेलित जिसके निमित्त पृथ्वीतल का जन-जन है, | ||
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कुरुक्षेत्र में अभी शुरू भी हुआ नही वह रण है. | कुरुक्षेत्र में अभी शुरू भी हुआ नही वह रण है. | ||
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'दो वीरों ने किंतु, लिया कर, आपस में निपटारा, | 'दो वीरों ने किंतु, लिया कर, आपस में निपटारा, | ||
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हुआ जयी राधेय और अर्जुन इस रण मे हारा.' | हुआ जयी राधेय और अर्जुन इस रण मे हारा.' | ||
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यह कह, उठा कृपाण कर्ण ने त्वचा छील क्षण भर में, | यह कह, उठा कृपाण कर्ण ने त्वचा छील क्षण भर में, | ||
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कवच और कुण्डल उतार, धर दिया इंद्र के कर में. | कवच और कुण्डल उतार, धर दिया इंद्र के कर में. | ||
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चकित, भीत चहचहा उठे कुंजो में विहग बिचारे, | चकित, भीत चहचहा उठे कुंजो में विहग बिचारे, | ||
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दिशा सन्न रह गयी देख यह दृश्य भीति के मारे. | दिशा सन्न रह गयी देख यह दृश्य भीति के मारे. | ||
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सह न सके आघात, सूर्य छिप गये सरक कर घन में, | सह न सके आघात, सूर्य छिप गये सरक कर घन में, | ||
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'साधु-साधु!' की गिरा मंद्र गूँजी गंभीर गगन में. | 'साधु-साधु!' की गिरा मंद्र गूँजी गंभीर गगन में. | ||
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अपना कृत्य विचार, कर्ण का करतब देख निराला, | अपना कृत्य विचार, कर्ण का करतब देख निराला, | ||
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देवराज का मुखमंडल पड़ गया ग्लानि से काला. | देवराज का मुखमंडल पड़ गया ग्लानि से काला. | ||
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क्लिन्न कवच को लिए किसी चिंता में मगे हुए-से. | क्लिन्न कवच को लिए किसी चिंता में मगे हुए-से. | ||
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ज्यों-के-त्यों रह गये इंद्र जड़ता में ठगे हुए-से. | ज्यों-के-त्यों रह गये इंद्र जड़ता में ठगे हुए-से. | ||
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'पाप हाथ से निकल मनुज के सिर पर जब छाता है, | 'पाप हाथ से निकल मनुज के सिर पर जब छाता है, | ||
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तब सत्य ही, प्रदाह प्राण का सहा नही जाता है, | तब सत्य ही, प्रदाह प्राण का सहा नही जाता है, | ||
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अहंकारवश इंद्र सरल नर को छलने आए थे, | अहंकारवश इंद्र सरल नर को छलने आए थे, | ||
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नहीं त्याग के माहतेज-सम्मुख जलने आये थे. | नहीं त्याग के माहतेज-सम्मुख जलने आये थे. | ||
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किन्तु, विशिख जो लगा कर्ण की बलि का आन हृदय में, | किन्तु, विशिख जो लगा कर्ण की बलि का आन हृदय में, | ||
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बहुत काल तक इंद्र मौन रह गये मग्न विस्मय में. | बहुत काल तक इंद्र मौन रह गये मग्न विस्मय में. | ||
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झुका शीश आख़िर वे बोले, 'अब क्या बात कहूँ मैं? | झुका शीश आख़िर वे बोले, 'अब क्या बात कहूँ मैं? | ||
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करके ऐसा पाप मूक भी कैसे, किन्तु रहूं मैं? | करके ऐसा पाप मूक भी कैसे, किन्तु रहूं मैं? | ||
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'पुत्र! सत्य तूने पहचाना, मैं ही सुरपति हूँ, | 'पुत्र! सत्य तूने पहचाना, मैं ही सुरपति हूँ, | ||
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पर सुरत्व को भूल निवेदित करता तुझे प्रणति हूँ, | पर सुरत्व को भूल निवेदित करता तुझे प्रणति हूँ, | ||
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देख लिया, जो कुछ देखा था कभी न अब तक भू पर, | देख लिया, जो कुछ देखा था कभी न अब तक भू पर, | ||
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आज तुला कर भी नीचे है मही, स्वर्ग है ऊपर. | आज तुला कर भी नीचे है मही, स्वर्ग है ऊपर. | ||
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'क्या कह करूँ प्रबोध? जीभ काँपति, प्राण हिलते हैं, | 'क्या कह करूँ प्रबोध? जीभ काँपति, प्राण हिलते हैं, | ||
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माँगूँ क्षमादान, ऐसे तो शब्द नही मिलते हैं. | माँगूँ क्षमादान, ऐसे तो शब्द नही मिलते हैं. | ||
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दे पावन पदधूलि कर्ण! दूसरी न मेरी गति है, | दे पावन पदधूलि कर्ण! दूसरी न मेरी गति है, | ||
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पहले भी थी भ्रमित, अभी भी फँसी भंवर में मति है | पहले भी थी भ्रमित, अभी भी फँसी भंवर में मति है | ||
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'नहीं जानता था कि छद्म इतना संहारक होगा, | 'नहीं जानता था कि छद्म इतना संहारक होगा, | ||
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दान कवच-कुण्डल का - ऐसा हृदय-विदारक होगा. | दान कवच-कुण्डल का - ऐसा हृदय-विदारक होगा. | ||
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मेरे मन का पाप मुझी पर बन कर धूम घिरेगा, | मेरे मन का पाप मुझी पर बन कर धूम घिरेगा, | ||
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वज्र भेद कर तुझे, तुरत मुझ पर ही आन गिरेगा. | वज्र भेद कर तुझे, तुरत मुझ पर ही आन गिरेगा. | ||
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'तेरे माहतेज के आगे मलिन हुआ जाता हूँ, | 'तेरे माहतेज के आगे मलिन हुआ जाता हूँ, | ||
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कर्ण! सत्य ही, आज स्वयं को बड़ा क्षुद्र पाता हूँ. | कर्ण! सत्य ही, आज स्वयं को बड़ा क्षुद्र पाता हूँ. | ||
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आह! खली थी कभी नहीं मुझको यों लघुता मेरी, | आह! खली थी कभी नहीं मुझको यों लघुता मेरी, | ||
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दानी! कहीं दिव्या है मुझसे आज छाँह भी तेरी. | दानी! कहीं दिव्या है मुझसे आज छाँह भी तेरी. | ||
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'तृण-सा विवश डूबता, उगता, बहता, उतराता हूँ, | 'तृण-सा विवश डूबता, उगता, बहता, उतराता हूँ, | ||
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शील-सिंधु की गहराई का पता नहीं पाता हूँ. | शील-सिंधु की गहराई का पता नहीं पाता हूँ. | ||
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घूम रही मन-ही-मन लेकिन, मिलता नहीं किनारा, | घूम रही मन-ही-मन लेकिन, मिलता नहीं किनारा, | ||
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हुई परीक्षा पूर्ण, सत्य ही नर जीता सुर हारा | हुई परीक्षा पूर्ण, सत्य ही नर जीता सुर हारा | ||
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22:52, 30 अगस्त 2020 के समय का अवतरण
'भुज को छोड़ न मुझे सहारा किसी और सम्बल का,
बड़ा भरोसा था, लेकिन, इस कवच और कुण्डल का,
पर, उनसे भी आज दूर सम्बन्ध किये लेता हूँ,
देवराज! लीजिए खुशी से महादान देता हूँ.
'यह लीजिए कर्ण का जीवन और जीत कुरूपति की,
कनक-रचित निःश्रेणि अनूपम निज सुत की उन्नति की.
हेतु पांडवों के भय का, परिणाम महाभारत का,
अंतिम मूल्य किसी दानी जीवन के दारुण व्रत का.
'जीवन देकर जय खरीदना, जग मे यही चलन है,
विजय दान करता न प्राण को रख कर कोई जन है.
मगर, प्राण रखकर प्रण अपना आज पालता हूँ मैं,
पूर्णाहुति के लिए विजय का हवन डालता हूँ मैं.
'देवराज! जीवन में आगे और कीर्ति क्या लूँगा?
इससे बढ़कर दान अनूपम भला किसे, क्या दूँगा?
अब जाकर कहिए कि 'पुत्र! मैं वृथा नहीं आया हूँ,
अर्जुन! तेरे लिए कर्ण से विजय माँग लाया हूँ.'
'एक विनय है और, आप लौटें जब अमर भुवन को,
दें दें यह सूचना सत्य के हित में, चतुरानन को,
'उद्वेलित जिसके निमित्त पृथ्वीतल का जन-जन है,
कुरुक्षेत्र में अभी शुरू भी हुआ नही वह रण है.
'दो वीरों ने किंतु, लिया कर, आपस में निपटारा,
हुआ जयी राधेय और अर्जुन इस रण मे हारा.'
यह कह, उठा कृपाण कर्ण ने त्वचा छील क्षण भर में,
कवच और कुण्डल उतार, धर दिया इंद्र के कर में.
चकित, भीत चहचहा उठे कुंजो में विहग बिचारे,
दिशा सन्न रह गयी देख यह दृश्य भीति के मारे.
सह न सके आघात, सूर्य छिप गये सरक कर घन में,
'साधु-साधु!' की गिरा मंद्र गूँजी गंभीर गगन में.
अपना कृत्य विचार, कर्ण का करतब देख निराला,
देवराज का मुखमंडल पड़ गया ग्लानि से काला.
क्लिन्न कवच को लिए किसी चिंता में मगे हुए-से.
ज्यों-के-त्यों रह गये इंद्र जड़ता में ठगे हुए-से.
'पाप हाथ से निकल मनुज के सिर पर जब छाता है,
तब सत्य ही, प्रदाह प्राण का सहा नही जाता है,
अहंकारवश इंद्र सरल नर को छलने आए थे,
नहीं त्याग के माहतेज-सम्मुख जलने आये थे.
किन्तु, विशिख जो लगा कर्ण की बलि का आन हृदय में,
बहुत काल तक इंद्र मौन रह गये मग्न विस्मय में.
झुका शीश आख़िर वे बोले, 'अब क्या बात कहूँ मैं?
करके ऐसा पाप मूक भी कैसे, किन्तु रहूं मैं?
'पुत्र! सत्य तूने पहचाना, मैं ही सुरपति हूँ,
पर सुरत्व को भूल निवेदित करता तुझे प्रणति हूँ,
देख लिया, जो कुछ देखा था कभी न अब तक भू पर,
आज तुला कर भी नीचे है मही, स्वर्ग है ऊपर.
'क्या कह करूँ प्रबोध? जीभ काँपति, प्राण हिलते हैं,
माँगूँ क्षमादान, ऐसे तो शब्द नही मिलते हैं.
दे पावन पदधूलि कर्ण! दूसरी न मेरी गति है,
पहले भी थी भ्रमित, अभी भी फँसी भंवर में मति है
'नहीं जानता था कि छद्म इतना संहारक होगा,
दान कवच-कुण्डल का - ऐसा हृदय-विदारक होगा.
मेरे मन का पाप मुझी पर बन कर धूम घिरेगा,
वज्र भेद कर तुझे, तुरत मुझ पर ही आन गिरेगा.
'तेरे माहतेज के आगे मलिन हुआ जाता हूँ,
कर्ण! सत्य ही, आज स्वयं को बड़ा क्षुद्र पाता हूँ.
आह! खली थी कभी नहीं मुझको यों लघुता मेरी,
दानी! कहीं दिव्या है मुझसे आज छाँह भी तेरी.
'तृण-सा विवश डूबता, उगता, बहता, उतराता हूँ,
शील-सिंधु की गहराई का पता नहीं पाता हूँ.
घूम रही मन-ही-मन लेकिन, मिलता नहीं किनारा,
हुई परीक्षा पूर्ण, सत्य ही नर जीता सुर हारा