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"ब्राह्म-मुहूर्त : स्वस्तिवाचन / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

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जो मै नें तुम्हे दिया है,
 
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उस दु:ख में नही जिसे
 
उस दु:ख में नही जिसे
बेझिझक मै नें पिया है।
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बेझिझक मैंने  पिया है।
  
 
उस गान में जियो
 
उस गान में जियो
 
जो मै नें तुम्हे सुनाया है
 
जो मै नें तुम्हे सुनाया है
 
उस आह में नहीं जिसे
 
उस आह में नहीं जिसे
मै नें तुम से छुपाया है।
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मैंने  तुम से छुपाया है।
  
 
उस द्वार से गुज़रो
 
उस द्वार से गुज़रो
जो मै नें तुम्हारे लिये खोला है
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जो मैंने तुम्हारे लिये खोला है
 
उस अन्धकार से नहीं
 
उस अन्धकार से नहीं
 
जिस की गहराई को
 
जिस की गहराई को
बार-बार मै नें तुम्हारी रक्षा की
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बार-बार मैंने तुम्हारी रक्षा की
 
भावना से टटोला है।
 
भावना से टटोला है।
  
 
वह छादन तुम्हारा घर हो
 
वह छादन तुम्हारा घर हो
जिसे मैं असीसों से बुनता हूँ, बुनूँगा;
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जिसे मैं असीसों से बुनता हूँ, बुनूंगा;
 
वे काँटे-गोखरू तो मेरे हैं
 
वे काँटे-गोखरू तो मेरे हैं
जिन्हें मैं राह से चुनता हूँ , चुनूँगा।
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जिन्हें मैं राह से चुनता हूँ , चुनूंगा।
  
 
वह पथ तुम्हारा हो
 
वह पथ तुम्हारा हो
जिसे मैं तुम्हारे हित बनाता हूँ, बनाता रहूँगा;
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जिसे मैं तुम्हारे हित बनाता हूँ, बनाता रहूंगा;
मैं जो रोड़ा हूँ, उसे हथोड़े से तोड़ तोड़
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मैं जो रोड़ा हूँ, उसे हथोड़े से तोड़-तोड़
 
मैं जो कारीगर हूँ, करीने से
 
मैं जो कारीगर हूँ, करीने से
सँवारता-सजाता हूँ, सजाता रहूँगा।
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सँवारता-सजाता हूँ, सजाता रहूंगा।
  
 
सागर के किनारे तक
 
सागर के किनारे तक
 
तुम्हें पहुँचाने का
 
तुम्हें पहुँचाने का
 
उदार उद्यम ही मेरा हो:
 
उदार उद्यम ही मेरा हो:
फ़िर वहाँ जो लहर हो, तारा हो,
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फिर वहाँ जो लहर हो, तारा हो,
 
सोन-तरी हो, अरुण सवेरा हो,
 
सोन-तरी हो, अरुण सवेरा हो,
 
वह सब, ओ मेरे वर्य!
 
वह सब, ओ मेरे वर्य!

11:18, 8 अक्टूबर 2008 का अवतरण

जियो उस प्यार में
जो मै नें तुम्हे दिया है,
उस दु:ख में नही जिसे
बेझिझक मैंने पिया है।

उस गान में जियो
जो मै नें तुम्हे सुनाया है
उस आह में नहीं जिसे
मैंने तुम से छुपाया है।

उस द्वार से गुज़रो
जो मैंने तुम्हारे लिये खोला है
उस अन्धकार से नहीं
जिस की गहराई को
बार-बार मैंने तुम्हारी रक्षा की
भावना से टटोला है।

वह छादन तुम्हारा घर हो
जिसे मैं असीसों से बुनता हूँ, बुनूंगा;
वे काँटे-गोखरू तो मेरे हैं
जिन्हें मैं राह से चुनता हूँ , चुनूंगा।

वह पथ तुम्हारा हो
जिसे मैं तुम्हारे हित बनाता हूँ, बनाता रहूंगा;
मैं जो रोड़ा हूँ, उसे हथोड़े से तोड़-तोड़
मैं जो कारीगर हूँ, करीने से
सँवारता-सजाता हूँ, सजाता रहूंगा।

सागर के किनारे तक
तुम्हें पहुँचाने का
उदार उद्यम ही मेरा हो:
फिर वहाँ जो लहर हो, तारा हो,
सोन-तरी हो, अरुण सवेरा हो,
वह सब, ओ मेरे वर्य!
तुम्हारा हो , तुम्हारा हो, तुम्हारा हो।

नई दिल्ली
६ अप्रैल १९५७