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"पहला पानी / केदारनाथ अग्रवाल" के अवतरणों में अंतर
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| − | + | पहला पानी गिरा गगन से | |
| − | उमँड़ा आतुर प्यार, | + | उमँड़ा आतुर प्यार, |
| − | + | हवा हुई, ठंढे दिमाग के जैसे खुले विचार । | |
| − | हवा हुई, ठंढे दिमाग के जैसे खुले विचार । | + | भीगी भूमि-भवानी, भीगी समय-सिंह की देह, |
| − | + | भीगा अनभीगे अंगों की | |
| − | भीगी भूमि-भवानी, भीगी समय-सिंह की देह, | + | अमराई का नेह |
| − | + | पात-पात की पाती भीगी-पेड़-पेड़ की डाल, | |
| − | भीगा अनभीगे अंगों की | + | भीगी-भीगी बल खाती है |
| − | + | गैल-छैल की चाल । | |
| − | अमराई का नेह | + | प्राण-प्राणमय हुआ परेवा,भीतर बैठा, जीव, |
| − | + | भोग रहा है | |
| − | पात-पात की पाती भीगी-पेड़-पेड़ की डाल, | + | द्रवीभूत प्राकृत आनंद अतीव । |
| − | + | रूप-सिंधु की | |
| − | भीगी-भीगी बल खाती है | + | लहरें उठती, |
| − | + | खुल-खुल जाते अंग, | |
| − | गैल-छैल की चाल । | + | परस-परस |
| − | + | घुल-मिल जाते हैं | |
| − | प्राण-प्राणमय हुआ परेवा,भीतर बैठा, जीव, | + | उनके-मेरे रंग । |
| − | + | नाच-नाच | |
| − | भोग रहा है | + | उठती है दामिने |
| − | + | चिहुँक-चिहुँक चहुँ ओर | |
| − | द्रवीभूत प्राकृत आनंद अतीव । | + | वर्षा-मंगल की ऐसी है भीगी रसमय भोर । |
| − | + | मैं भीगा, | |
| − | रूप-सिंधु की | + | मेरे भीतर का भीगा गंथिल ज्ञान, |
| − | + | भावों की भाषा गाती है | |
| − | लहरें उठती, | + | |
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| − | खुल-खुल जाते अंग, | + | |
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| − | उनके-मेरे रंग । | + | |
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जग जीवन का गान । | जग जीवन का गान । | ||
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23:39, 8 मार्च 2021 का अवतरण
पहला पानी गिरा गगन से
उमँड़ा आतुर प्यार,
हवा हुई, ठंढे दिमाग के जैसे खुले विचार ।
भीगी भूमि-भवानी, भीगी समय-सिंह की देह,
भीगा अनभीगे अंगों की
अमराई का नेह
पात-पात की पाती भीगी-पेड़-पेड़ की डाल,
भीगी-भीगी बल खाती है
गैल-छैल की चाल ।
प्राण-प्राणमय हुआ परेवा,भीतर बैठा, जीव,
भोग रहा है
द्रवीभूत प्राकृत आनंद अतीव ।
रूप-सिंधु की
लहरें उठती,
खुल-खुल जाते अंग,
परस-परस
घुल-मिल जाते हैं
उनके-मेरे रंग ।
नाच-नाच
उठती है दामिने
चिहुँक-चिहुँक चहुँ ओर
वर्षा-मंगल की ऐसी है भीगी रसमय भोर ।
मैं भीगा,
मेरे भीतर का भीगा गंथिल ज्ञान,
भावों की भाषा गाती है
जग जीवन का गान ।
