"सुनो सती! / दिनेश श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
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कैसे थे तुम्हारे पिता?
पहले तो तुम्हारे पति का अपमान।
और जब तुम अग्निकुंड में कूदीं, तो
तुम्हें जलते और मरते देखना।
पर वाह रे उनका गरूर!
उनका दिल नहीं पसीजा।
पसीजता भी कैसे,
थीं तो तुम एक बेटी ही न,
एक बोझ, जाने किस जनम का कर्ज।
सुनो सती,
तभी तो आहत, दुखी, संतप्त
शिव ने तांडव किया था और
दक्ष का सर काट बकरे का सर
लगाया था।
याद हैं न, तुम्हें?
और शायद, एक संवेदनाहीन क्रूर व्यक्ति
के लिए यही उचित था।
सुनो सती,
यह तुमसे बिछड़ने का दुःख था
या फिर भारत वर्ष को इस
हृदय हीनता की कथा जताने की
अभिलाषा।
या फिर नारी के प्रचंड अपमान की आँच,
कि शिव तुम्हारा शव लिए पूरे भारत में
चलते रहे, चलते रहे, और
पूरा भारत उनके, तुम्हारे शोक में
निमग्न रहा।
सुनो सती,
पर शासन को तो यह भी नहीं भाया.
और विष्णु से तुम्हारे शव के खंड खंड
करवा दिए गए।
और सती!
तुम मर कर भी जी उठीं.
भारत के कोने कोने में गिरे तुम्हारे अंग
शक्तिपीठ बने, जोड़ गए भारत को
संवेदना के एक सूत्र में।
पर सुनो सती!
जाने क्यों,
संवेदना का यह सूत्र आज सड़ रहा है.
तभी तो दाना मांझी अमंग को खोता है,
और कुछ नहीं कहता।
न उलाहना, न उपालम्भ, न दोषारोपण
बस उसका शव कंधे पर लादे चल पड़ता है
सुबकती हुई बेटी के साथ
पक्की सड़क के किनारे किनारे।
यह पक्की सड़क भी तो उसी ने बनाई है।
पर वह उस पर बस पैदल चल सकता है
किनारे किनारे
अमंग का शव लादे
सुबकती हुई बेटी के साथ।
उस अस्पताल पर भी उसका अधिकार नहीं
जिसे उसने अपने कमजोर हाथों बनाया था।
न संवेदना की अपेक्षा न संवेदना का अधिकार
न मदद की अपेक्षा न मदद का अधिकार
न क्रोध न अपमान न वितृष्णा
न व्यवस्था का सिर काट बकरे का सिर लगाने की
चाहत
बस अमंग का शव कंधे पर लादे
सुबकती हुई बेटी के साथ
चले जा रहा है दाना मांझी
एक तमाशा बना
एक आइना बना
वह शिव भी तो नहीं
कि तांडव करे
और करे इस यज्ञ का विध्वंस
और लगा दे इस व्यवस्था के सिर की जगह
एक बकरे का सिर।
सुनो सती!
आज सती आज कितनी निरीह है।
और दाना मांझी कितना बेबस।