भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"जुल्मतों का जज़ीरा / शेखर सिंह मंगलम" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शेखर सिंह मंगलम |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

14:50, 30 अप्रैल 2022 के समय का अवतरण

देखते रहे सब तूफ़ानों में उड़ते परिंदो को
सड़कें लुटी, कूचे लूटे,
दरवाज़े लुटे, दरीचे लुटे, मुकम्मल घर भी लुट गया
मैं रोक न सका मज़हबी दरिंदो को

जज़ीरा था जुल्मतों का गिर्द सबके
मुख़ालिफ़त किए जो उनके सर कटे
रहे सब ज़िंदा मुर्दा बन देखते।
सोचता हूँ मैं क्यों न काट सका खौफ़ के शिकंजों को

अब की मुख़ालिफ़त की दरख़तों से
पत्ते टहनी सब छाँट दिए गए हैं
हाथ के अंगूठे वोट बैंकों में बाँट दिए गए हैं
मस्लहत की बात कि अगर
मैं नहीं तोड़ पाया तो
और सब क्यों न तोड़ पाए भेड़ियों के पंजों को

मसला यक-जेहती का है
सुनो गौर से
बे-आबरू माँ भारती कहती क्या है
सियासतदान तोड़ने-फोड़ने वाले लोग हैं
तुम क्यों मज़हबों के नाम पर
बँट रहे मेरे बेटों, मेरे सपूतों
बंद करो सफ़ेद गिद्धों के गोरख धंधों को
देखते रहे सब तूफ़ान में उड़ते परिंदो को...