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"पत्थरों में गोताखोरी-1 / वेणु गोपाल" के अवतरणों में अंतर

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पत्थरों में कहीं बहुत गहरे
गोताख़ोरी करता हुआ

वह

मिट्टी टोहता है।

लहुलुहान
उंगलियों से
एकाध भी जड़ छू लेता है
तो
उसकी आँखें
हरी कोंपलों की तरह
झूमने लगती हैं।

पत्थरों की सतह पर
धूप है
तपती हुई बेज़मीनी है।

रचनाकाल : 18 मई 1980