भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"बीच में समन्दर / वेणु गोपाल" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वेणु गोपाल |संग्रह=चट्टानों का जलगीत / वेणु गोप...) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 16: | पंक्ति 16: | ||
जब | जब | ||
− | मैं अपने ही | + | मैं अपने ही जिस्म में |
दुबक जाता हूँ | दुबक जाता हूँ | ||
और | और |
19:14, 6 नवम्बर 2008 के समय का अवतरण
शाम का इस क़दर दौर-दौरा है
कि सुबह भी
शाम बने बग़ैर
मेरे
आसमान में
नहीं आती।
शाम :
जब
मैं अपने ही जिस्म में
दुबक जाता हूँ
और
रंग बदलते
रंगारंग आसमान को देखता हूँ।
बीच में समंदर होता है।
और
उसकी पछाड़ खाती लहरों में
तुम्हारी
गुहार।
मैं सुनकर भी नहीं सुनता।
समंदर के उस पार
तुम होती हो
और सुबह होती है।
रचनाकाल : 15 मई 1975