भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"बर्फीली धुंध में काला कव्वा / अलेक्सान्दर ब्लोक / वरयाम सिंह" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 18: | पंक्ति 18: | ||
बर्फ़ीली हवा, तुम्हारी साँस, | बर्फ़ीली हवा, तुम्हारी साँस, | ||
− | + | मदोन्मत्त मेरे होठ... | |
वलेनतीना, वह तारा, वह सपना ! | वलेनतीना, वह तारा, वह सपना ! | ||
कितना अच्छा गाती है तुम्हारी कोयल । | कितना अच्छा गाती है तुम्हारी कोयल । |
01:12, 23 जून 2022 के समय का अवतरण
बर्फ़ीली धुन्ध में काला कव्वा
साँवले कन्धों पर काली मखमल
एक थकी कोमल आवाज़
दक्षिण की रातों के सुना रही है गीत ।
मौज-मस्ती है तनावमुक्त हृदय में
समुद्र से जैसे कोई संकेत मिला हो
अथाह गह्वर के ऊपर से उड़ता
अनन्त की ओर चल दिया घोड़ा एक ।
बर्फ़ीली हवा, तुम्हारी साँस,
मदोन्मत्त मेरे होठ...
वलेनतीना, वह तारा, वह सपना !
कितना अच्छा गाती है तुम्हारी कोयल ।
डरावनी यह दुनिया तंग पड़ रही है तुम्हारे हृदय के लिए,
तुम्हारे चुम्बनों का सन्निपात है उसमें,
जिप्सी गीतों का काला अन्धकार है
और है पुच्छलतारों की तेज़ उड़ान ।