भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कहाँ रहा है पेट / रामकुमार कृषक" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामकुमार कृषक |अनुवादक= |संग्रह=स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 21: पंक्ति 21:
 
उभरी हुई नसें !
 
उभरी हुई नसें !
  
मुट्ठी–भर
+
मुट्ठी - भर
 
हो चला इरादा
 
हो चला इरादा
 
गज पर गाज गिरी
 
गज पर गाज गिरी

18:11, 6 अगस्त 2022 के समय का अवतरण

कहाँ रहा है पेट
पट्टियाँ कितना और कसें
टँगी हुई आँखें अम्बर में
कितना और धँसे !

हड्डी - हड्डी देह
देह को ईंधन हुई
हवा
हाथों के पौरुख में ख़ाली
टूटा हुआ तवा,

हर तनाव भीतरला बाहर
उभरी हुई नसें !

मुट्ठी - भर
हो चला इरादा
गज पर गाज गिरी
घाटी घूम पहाड़ी चढ़ते
मुचिया रही धुरी,

कुछ ख़िज़ाब - सा भी तलाशतीं
भीगी हुई मसें !

21 सितम्बर 1975