"शाय़द मौन भी नहीं / मनीष यादव" के अवतरणों में अंतर
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जैसे
अस्पष्ट दु:खों की कोई भाषा नहीं होती
शाय़द मौन भी नहीं!
उसी प्रकार
अस्वीकृत मन से होने वाले
विवाह का प्राथमिक उत्तर होना चाहिए -”नहीं”
चाहता हूँ समाज समझे कि
तेरहवें बरस की उम्र में दौड़ते पैरों के अनगिनत स्वप्नों को
सिंदूर की लालिमा की चमक नहीं चाहिए
आख़िर इनके पुष्प जैसे हृदयों को
सनाई के फूल की भाँति पकौड़े क्यों तलना चाह रहे?
अबूझ के छलावे में होते
उस लड़की के ब्याह के विरुद्ध
क्यों नहीं बोल रही है मंडप के पास खड़ी स्त्रीयाँ
सुनो तुम!
कहीं अपराध बोध के दोष से
"कुम्हलाई”दुर्गंधीत, देह की तरह
विचारने पर विवश न हो जाओ..!
मिट्टी के शिल्प से बने
नौ-घर के चिन्हों में समा लेती थी वो
एक पैर से मापा जा सकने वाला संपूर्ण संसार
किंतु माँ का अस्थिर मन
उससे बार-बार पूछता है –
अंतस की पीड़ा से भागते हुए उसने
छ़त से इतनी ऊँची छलांग कैसे लगा दी?