भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मैं अमर शहीदों का चारण / श्रीकृष्ण सरल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
<poem>
 
<poem>
 
मैं अमर शहीदों का चारण
 
मैं अमर शहीदों का चारण
उनके गुण गाया करता हूँ
+
उनके यश गाया करता हूँ
 
जो कर्ज राष्ट्र ने खाया है,
 
जो कर्ज राष्ट्र ने खाया है,
 
मैं उसे चुकाया करता हूँ।
 
मैं उसे चुकाया करता हूँ।
  
यह सच है, याद शहीदों की हम लोगों ने दफनाई है
+
यह सच है याद शहीदों की हम लोगों ने दफनाई है
यह सच है, उनकी लाशों पर चलकर आज़ादी आई है,
+
यह सच है उनकी लाशों पर चलकर आज़ादी आई है,
यह सच है, हिन्दुस्तान आज जिन्दा उनकी कुर्वानी से
+
यह सच है हिन्दुस्तान आज जिन्दा उनकी कुर्वानी से
 
यह सच अपना मस्तक ऊँचा उनकी बलिदान कहानी से।
 
यह सच अपना मस्तक ऊँचा उनकी बलिदान कहानी से।
  
 
वे अगर न होते तो भारत मुर्दों का देश कहा जाता,
 
वे अगर न होते तो भारत मुर्दों का देश कहा जाता,
जीवन ऍसा बोझा होता जो हमसे नहीं सहा जाता,
+
जीवन ऐसा बोझा होता जो हमसे नहीं सहा जाता,
यह सच है दाग गुलामी के उनने लोहू सो धोए हैं,
+
यह सच है दाग गुलामी के उनने लोहू से धोए हैं,
 
हम लोग बीज बोते, उनने धरती में मस्तक बोए हैं।
 
हम लोग बीज बोते, उनने धरती में मस्तक बोए हैं।
 
इस पीढ़ी में, उस पीढ़ी के
 
इस पीढ़ी में, उस पीढ़ी के
पंक्ति 29: पंक्ति 29:
 
काँटों के पथ का वरण किया, रंगीन बहारें लौटा दीं।
 
काँटों के पथ का वरण किया, रंगीन बहारें लौटा दीं।
  
उनने धरती की सेवा के वादे न किए लम्बे—चौड़े,
+
उनने धरती की सेवा के वादे न किए लम्बे-चौड़े,
 
माँ के अर्चन हित फूल नहीं, वे निज मस्तक लेकर दौड़े,
 
माँ के अर्चन हित फूल नहीं, वे निज मस्तक लेकर दौड़े,
 
भारत का खून नहीं पतला, वे खून बहा कर दिखा गए,
 
भारत का खून नहीं पतला, वे खून बहा कर दिखा गए,
जग के इतिहासों में अपनी गौरव—गाथाएँ लिखा गए।
+
जग के इतिहासों में अपनी गौरव-गाथाएँ लिखा गए।
उन गाथाओं से सर्दखून को
+
उन गाथाओं से सर्द खून को
 
मैं गरमाया करता हूँ।
 
मैं गरमाया करता हूँ।
 
मैं अमर शहीदों का चरण
 
मैं अमर शहीदों का चरण
पंक्ति 41: पंक्ति 41:
 
उनसे है माँ की कोख धन्य, उनको पाकर है धन्य धरा,
 
उनसे है माँ की कोख धन्य, उनको पाकर है धन्य धरा,
 
गिरता है उनका रक्त जहाँ, वे ठौर तीर्थ कहलाते हैं,
 
गिरता है उनका रक्त जहाँ, वे ठौर तीर्थ कहलाते हैं,
वे रक्त—बीज, अपने जैसों की नई फसल दे जाते हैं।
+
वे रक्त-बीज, अपने जैसों की नई फसल दे जाते हैं।
  
इसलिए राष्ट्र—कर्त्तव्य, शहीदों का समुचित सम्मान करे,
+
इसलिए राष्ट्र-कर्त्तव्य, शहीदों का समुचित सम्मान करे,
मस्तक देने वाले लोगों पर वह युग—युग अभिमान करे,
+
मस्तक देने वाले लोगों पर वह युग-युग अभिमान करे,
होता है ऍसा नहीं जहाँ, वह राष्ट्र नहीं टिक पाता है,
+
होता है ऐसा नहीं जहाँ, वह राष्ट्र नहीं टिक पाता है,
 
आजादी खण्डित हो जाती, सम्मान सभी बिक जाता है।
 
आजादी खण्डित हो जाती, सम्मान सभी बिक जाता है।
यह धर्म—कर्म यह मर्म
+
यह धर्म-कर्म यह मर्म
 
सभी को मैं समझाया करता हूँ।
 
सभी को मैं समझाया करता हूँ।
 
मैं अमर शहीदों का चरण
 
मैं अमर शहीदों का चरण
पंक्ति 61: पंक्ति 61:
 
पूजे न शहीद गए तो फिर यह बीज कहाँ से आएगा?
 
पूजे न शहीद गए तो फिर यह बीज कहाँ से आएगा?
 
धरती को माँ कह कर, मिट्टी माथे से कौन लगाएगा?
 
धरती को माँ कह कर, मिट्टी माथे से कौन लगाएगा?
मैं चौराहे—चौराहे पर
+
मैं चौराहे-चौराहे पर
 
ये प्रश्न उठाया करता हूँ।
 
ये प्रश्न उठाया करता हूँ।
 
मैं अमर शहीदों का चारण
 
मैं अमर शहीदों का चारण
 
उनके यश गाया करता हूँ।
 
उनके यश गाया करता हूँ।
जो कर्ज ने खाया है, मैं चुकाया करता हूँ।  
+
जो कर्ज ने खाया है, मैं उसे चुकाया करता हूँ।  
 
</poem>
 
</poem>

21:32, 29 अगस्त 2023 के समय का अवतरण

मैं अमर शहीदों का चारण
उनके यश गाया करता हूँ
जो कर्ज राष्ट्र ने खाया है,
मैं उसे चुकाया करता हूँ।

यह सच है याद शहीदों की हम लोगों ने दफनाई है
यह सच है उनकी लाशों पर चलकर आज़ादी आई है,
यह सच है हिन्दुस्तान आज जिन्दा उनकी कुर्वानी से
यह सच अपना मस्तक ऊँचा उनकी बलिदान कहानी से।

वे अगर न होते तो भारत मुर्दों का देश कहा जाता,
जीवन ऐसा बोझा होता जो हमसे नहीं सहा जाता,
यह सच है दाग गुलामी के उनने लोहू से धोए हैं,
हम लोग बीज बोते, उनने धरती में मस्तक बोए हैं।
इस पीढ़ी में, उस पीढ़ी के
मैं भाव जगाया करता हूँ।
मैं अमर शहीदों का चारण
उनके यश गाया करता हूँ।

यह सच उनके जीवन में भी रंगीन बहारें आई थीं,
जीवन की स्वप्निल निधियाँ भी उनने जीवन में पाई थीं,
पर, माँ के आँसू लख उनने सब सरस फुहारें लौटा दीं,
काँटों के पथ का वरण किया, रंगीन बहारें लौटा दीं।

उनने धरती की सेवा के वादे न किए लम्बे-चौड़े,
माँ के अर्चन हित फूल नहीं, वे निज मस्तक लेकर दौड़े,
भारत का खून नहीं पतला, वे खून बहा कर दिखा गए,
जग के इतिहासों में अपनी गौरव-गाथाएँ लिखा गए।
उन गाथाओं से सर्द खून को
मैं गरमाया करता हूँ।
मैं अमर शहीदों का चरण
उनके यश गाया करता हूँ।

है अमर शहीदों की पूजा, हर एक राष्ट्र की परंपरा
उनसे है माँ की कोख धन्य, उनको पाकर है धन्य धरा,
गिरता है उनका रक्त जहाँ, वे ठौर तीर्थ कहलाते हैं,
वे रक्त-बीज, अपने जैसों की नई फसल दे जाते हैं।

इसलिए राष्ट्र-कर्त्तव्य, शहीदों का समुचित सम्मान करे,
मस्तक देने वाले लोगों पर वह युग-युग अभिमान करे,
होता है ऐसा नहीं जहाँ, वह राष्ट्र नहीं टिक पाता है,
आजादी खण्डित हो जाती, सम्मान सभी बिक जाता है।
यह धर्म-कर्म यह मर्म
सभी को मैं समझाया करता हूँ।
मैं अमर शहीदों का चरण
उनके यश गाया करता हूँ।

पूजे न शहीद गए तो फिर, यह पंथ कौन अपनाएगा?
तोपों के मुँह से कौन अकड़ अपनी छातियाँ अड़ाएगा?
चूमेगा फन्दे कौन, गोलियाँ कौन वक्ष पर खाएगा?
अपने हाथों अपने मस्तक फिर आगे कौन बढ़ाएगा?

पूजे न शहीद गए तो फिर आजादी कौन बचाएगा?
फिर कौन मौत की छाया में जीवन के रास रचाएगा?
पूजे न शहीद गए तो फिर यह बीज कहाँ से आएगा?
धरती को माँ कह कर, मिट्टी माथे से कौन लगाएगा?
मैं चौराहे-चौराहे पर
ये प्रश्न उठाया करता हूँ।
मैं अमर शहीदों का चारण
उनके यश गाया करता हूँ।
जो कर्ज ने खाया है, मैं उसे चुकाया करता हूँ।