भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"धूप से कर छाँव छलनी गर्मियों की ये दुपहरी / 'सज्जन' धर्मेन्द्र" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र |संग्रह=ग़ज़ल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
छो |
||
पंक्ति 15: | पंक्ति 15: | ||
क्यूँ उसे इतना सताती गर्मियों की ये दुपहरी। | क्यूँ उसे इतना सताती गर्मियों की ये दुपहरी। | ||
− | आम का | + | आम का एक पेड़ अब भी राह मेरी देखता है, |
याद मुझको है दिलाती गर्मियों की ये दुपहरी। | याद मुझको है दिलाती गर्मियों की ये दुपहरी। | ||
12:26, 26 फ़रवरी 2024 के समय का अवतरण
धूप से कर छाँव छलनी गर्मियों की ये दुपहरी।
पेड़ सारे कैद करती गर्मियों की ये दुपहरी।
जल रही भू, चल रही लू, सूर्य मनमानी करे अब,
देख डर से काँप जाती गर्मियों की ये दुपहरी।
सूख कर काँटा हुई है गाँव की चंचल नदी फिर,
क्यूँ उसे इतना सताती गर्मियों की ये दुपहरी।
आम का एक पेड़ अब भी राह मेरी देखता है,
याद मुझको है दिलाती गर्मियों की ये दुपहरी।
मन झुलसता, जल रहा तन, बोझ सा हो गया जीवन,
नर्क का ट्रेलर दिखाती गर्मियों की ये दुपहरी।