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काले आकाश में खुदे पड़े हैं शब्द
कि चकमका जाती हैं ख़ूबसूरत आँखें...
डर नहीं हमें मृत्यु-शैय्या का,
न ही प्रणय-शैय्या का मोह ।
ख़ून-पसीना एक करते, ओ लेखक, ओ किसान,
हमें ज्ञात है वह उफ़नती हुई ऊर्जा-
एक हल्की-सी आग नाचती हुई घुंघराले बालों पर
जैसे एक झोंका
अन्त:प्रेरणा का ।
रचनाकाल : 14 मई 1918
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह