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"यह उत्कट जिप्सी प्रेम / मरीना स्विताएवा" के अवतरणों में अंतर
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विरह का यह उत्कट जिप्सी प्रेमी
मिलने पर छिटक जाता है दूर
हाथों पर गिर आता है माथा
अंधकार निहारते सोचती हूँ मैं :
हमारी चिट्ठियों को खोदता
कोई भी नहीं पहुँच सका इस गहराई में,
किस हद तक हम रहे हैं आस्थाभंजक
यानी किस हद तक अपने-अपने प्रति आस्थावान !
रचनाकाल : अक्तूबर 1915
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह