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खाकर-निरापद भाव से
 
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बच्चे जनते रहे।
 
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योजनायें चलती रहीं
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बन्दूकों के कारखानों में
 
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जूते बनते रहे।
 
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और बाहर मुर्दे पड़े हैं
 
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विधवायें तमगा लूट रहीं हैं
 
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सधवायें मंगल गा रहीं हैं
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सधवाएँ  मंगल गा रहीं हैं
 
वन-महोत्सव से लौटी हुई कार्यप्रणालियाँ
 
वन-महोत्सव से लौटी हुई कार्यप्रणालियाँ
 
अकाल का लंगर चला रही हैं
 
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बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है
 
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अखबार के मटमैले हासिये पर
 
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लेटे हुये ,एक तटस्थ और कोढ़ी देवता का
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शांतिवाद ,नाम है
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शांतिवाद, नाम है
 
यह मेरा देश है…
 
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फैला हुआ
 
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जली हुई मिट्टी का ढेर है
 
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जहाँ हर तीसरी जुबान का मतलब-
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नफ़रत है।
 
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एक शब्द… सिर्फ एक शब्द है:
 
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कुहरा,कीचड़ और कांच से
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बना हुआ…
 
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एक भेड़ है
 
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जो ढलान पर
 
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हर आती-जाती हवा की जुबान में
 
हर आती-जाती हवा की जुबान में
हाँऽऽ.. हाँऽऽ करता है
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हाँऽऽ हाँऽऽ करता है
 
क्योंकि अपनी हरियाली से
 
क्योंकि अपनी हरियाली से
 
डरता है।
 
डरता है।

11:48, 27 सितम्बर 2024 के समय का अवतरण

भीड़ बढ़ती रही
चौराहे चौड़े होते रहे
लोग अपने-अपने हिस्से का अनाज
खाकर-निरापद भाव से
बच्चे जनते रहे।
योजनाएँ चलती रहीं
बन्दूकों के कारखानों में
जूते बनते रहे।
और जब कभी मौसम उतार पर
होता था हमारा संशय
हमें कोंचता था।
हम उत्तेजित होकर
पूछते थे - यह क्या है?
ऐसा क्यों है?
फिर बहसें होतीं थीं
शब्दों के जंगल में
हम एक-दूसरे को काटते थे
भाषा की खाई को
ज़ुबान से कम जूतों से
ज़्यादा पाटते थे
कभी वह हारता रहा…
कभी हम जीतते रहे…
इसी तरह नोक-झोंक चलती रही
दिन बीतते रहे…
मगर एक दिन मैं स्तब्ध रह गया।
मेरा सारा धीरज
युद्ध की आग से पिघलती हुयी बर्फ में
बह गया।
मैंने देखा कि मैदानों में
नदियों की जगह
मरे हुये साँपों की केंचुलें बिछी हैं
पेड़-टूटे हुये रडार की तरह खड़े हैं
दूर-दूर तक
कोई मौसम नहीं है
लोग-
घरों के भीतर नंगे हो गये हैं
और बाहर मुर्दे पड़े हैं
विधवायें तमगा लूट रहीं हैं
सधवाएँ मंगल गा रहीं हैं
वन-महोत्सव से लौटी हुई कार्यप्रणालियाँ
अकाल का लंगर चला रही हैं
जगह-जगह तख्तियाँ लटक रहीं हैं-
‘यह श्मशान है,यहाँ की तश्वीर लेना
सख्त मना है।’
फिर भी उस उजाड़ में
कहीं-कहीं घास का हरा कोना
कितना डरावना है
मैंने अचरज से देखा कि दुनिया का
सबसे बड़ा बौद्ध- मठ
बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है
अखबार के मटमैले हासिये पर
लेटे हुए, एक तटस्थ और कोढ़ी देवता का
शांतिवाद, नाम है
यह मेरा देश है…
यह मेरा देश है…
हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक
फैला हुआ
जली हुई मिट्टी का ढेर है
जहाँ हर तीसरी ज़ुबान का मतलब-
नफ़रत है।
साज़िश है।
अन्धेर है।
यह मेरा देश है
और यह मेरे देश की जनता है
जनता क्या है?
एक शब्द… सिर्फ एक शब्द है:
कुहरा, कीचड़ और कांच से
बना हुआ…
एक भेड़ है
जो दूसरों की ठण्ड के लिये
अपनी पीठ पर
ऊन की फसल ढो रही है।
एक पेड़ है
जो ढलान पर
हर आती-जाती हवा की जुबान में
हाँऽऽ हाँऽऽ करता है
क्योंकि अपनी हरियाली से
डरता है।
गाँवों में गन्दे पनालों से लेकर
शहर के शिवालों तक फैली हुई
‘कथाकलि’ की अमूर्त मुद्रा है
यह जनता…
उसकी श्रद्धा अटूट है
उसको समझा दिया गया है कि यहाँ
ऐसा जनतन्त्र है जिसमें
घोड़े और घास को
एक-जैसी छूट है
कैसी विडम्बना है
कैसा झूठ है
दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
मदारी की भाषा है।
हर तरफ धुआँ है
हर तरफ कुहासा है
जो दाँतों और दलदलों का दलाल है
वही देशभक्त है
अन्धकार में सुरक्षित होने का नाम है-
तटस्थता।
यहाँ
कायरता के चेहरे पर
सबसे ज्यादा रक्त है।
जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिये, सबसे भद्दी गाली है
हर तरफ कुआँ है
हर तरफ खाई है
यहाँ, सिर्फ, वह आदमी, देश के करीब है
जो या तो मूर्ख है
या फिर गरीब है