भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"नक़ाब / ऋचा दीपक कर्पे" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ऋचा दीपक कर्पे |अनुवादक= |संग्रह= }}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
09:53, 18 जनवरी 2025 के समय का अवतरण
जानती हूँ
कि बहुत सारी लड़ाइयाँ
लड़ रहे हो तुम भी
भीतर ही भीतर
बहुत सारे सवालों में
उलझे हुए रहते हो
दिन भर
लेकिन पुरूष हो ना,
मेरे कंधे पर सर रख कर
रो ना सकोगे कभी
अपने ज़ज्बातों को अल्फ़ाज़
दे ना सकोगे कभी
चलते रहते हो
मुस्कुराहट का
एक नक़ाब लगाए
यह सोचकर
कि पढ़ नहीं सकेगा
तुम्हें कोई!
लेकिन,
यह भूल रहे हो तुम,
कि एक स्त्री
झाँक सकती है
तुम्हारे भीतर तक
जान सकती है
तुम्हारे कहे बिना सब कुछ
तब तो और भी यकीनन
जब उसे प्यार हो तुमसे!