"षष्ठ अध्याय / श्वेताश्वतरोपनिषद / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर
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− | + | कुछ विज जग का मूल कारण, काल कहते, स्वभाव है,<br> | |
− | + | पर वस्तुतः मोहित सभी, कुछ और अन्तः भाव है.<br> | |
− | + | प्रत्यक्ष जो ब्रह्माण्ड वह तो, ब्रह्म की महिमा महे,<br> | |
− | + | यह ब्रह्म चक्र है संचलित, परब्रह्म से, कैसे कहें ? [ १ ]<br><br> | |
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+ | वह तो काल का भी महाकाल व् विश्व को आवृत किए,<br> | ||
+ | जग सर्व गुण सर्वज्ञ से शासित , हो सब उसके किये .<br> | ||
+ | जल, तेज, वायु, नभ, धरा का है , शक्ति संचालक वही,<br> | ||
+ | चिन्मय का चिंतन चित्र से , मानव करो प्रभु अति मही॥ [ २ ]<br><br> | ||
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+ | निज शक्ति भूता , पृकृति ब्रह्म ने तो कर्म संपादित किया,<br> | ||
+ | जड़ चेतना दो तत्वों का संयोग प्रतिपादित किया .<br> | ||
+ | सत रज व् तम, आठों प्रकृति और काल के सम्बन्ध से ,<br> | ||
+ | यह जग रचा , ममता, अहंता, मोह तत्व प्रबंध से॥ [ ३ ]<br><br> | ||
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− | <span class="mantra_translation"> | + | <span class="mantra_translation"> |
+ | सत रज व् तम तीनों गुणों, स्व वर्ण आश्रम के यथा<br> | ||
+ | करें आचरण निष्काम वृति प्रभु , को समर्पण हो तथा.<br> | ||
+ | साधक वही कर्मादि फल , विश्वानि भोगों से मुक्त हो,<br> | ||
+ | अथ कर्मों का जब नाश हो, तब ब्रह्म से संयुक्त हो॥ [ ४ ]<br><br> | ||
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+ | अति आदि कारण ब्रह्म कालों से परे, अतिशय परे.<br> | ||
+ | जीव और प्रकृति संयोग कर्ता, विश्व संचालित करे.<br> | ||
+ | स्तुत्य अन्तः करण स्थित, विश्व रूप विराट है,<br> | ||
+ | अति आदि, कारणहीन , अद्भुत देव है, सम्राट है॥ [ ५ ]<br><br> | ||
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+ | संसार रूप प्रपंच अविरल घूमे , जिसके प्रभाव से,<br> | ||
+ | विश्व रूपी वृक्ष , आकृति परे काल विभाव से.<br> | ||
+ | आकार हीन तथापि जगदाधार, अधिपति ईमहे ,<br> | ||
+ | अमृत स्वरूपी ब्रह्म को , साधक हैं ध्याते धी महे॥ [ ६ ]<br><br> | ||
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+ | उस ईश्वरों के परम ईश्वर , यह महेश्वर ब्रह्म हैं,<br> | ||
+ | देवों के भी आराध्य , पतियों के पति हैं अगम्य है.<br> | ||
+ | ब्रह्माण्ड के स्वामी परम , स्तुत्य ज्योति रूप हैं<br> | ||
+ | हैं जगत के कारण तथापि , पृथक जग से अनूप हैं॥ [ ७ ]<br><br> | ||
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+ | वह इन्द्रियों काया विहीन व् सूक्ष्म अति है अदृश्य है,<br> | ||
+ | कोई न उससे है बड़ा , सम दृश्य भी नहीं दृश्य है.<br> | ||
+ | विख्यात है बल ज्ञान उसका ,कर्म भी यश पूर्ण है,<br> | ||
+ | दिव्य शक्ति स्वभाव अनुपम , वृति से परिपूर्ण है॥ [ ८ ]<br><br> | ||
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+ | इस विश्व में कोई भी तो , उस विश्व पति का पति नहीं ,<br> | ||
+ | वही कारणों का परम कारण , कोई भी अधिपति नहीं.<br> | ||
+ | करुणाधिपाधिप ब्रह्म है, वही एक जग का साध्य है,<br> | ||
+ | नहीं जनक उसका कोई भी , वही जग पिता आराध्य है॥ [ ९ ]<br><br> | ||
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+ | मकड़ी स्व निर्मित तंतुओं से , स्वयं ज्यों आवृत किए,<br> | ||
+ | वैसे नियंता जग रचित कर , स्वयं को परिवृत किए .<br> | ||
+ | इसलिए ही मानवों को तो , ब्रह्म लगता अदृश्य है,<br> | ||
+ | इस रूप में सर्वत्र व्याप्त है , कौन उसके सदृश्य है॥ [ १० ]<br><br> | ||
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+ | वही हृदय रूपी गुफा में , अन्तर्निहित होकर छिपा,<br> | ||
+ | सब प्राणियों में बस रहा, सृष्टि सकल उसकी कृपा.<br> | ||
+ | निर्गुण शुभाशुभ कर्म दृष्टा, साक्षी चेतन शुभ महे,<br> | ||
+ | उस कर्म फल दाता, प्रदाता की कृपा कैसे कहें॥ [ ११ ]<br><br> | ||
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+ | एकमेव ही बहुनाम स्थित , जीवों का अधिपति महा,<br> | ||
+ | जो की प्रकृति रूपी बीज एक, अनेक कर जग रच रहा.<br> | ||
+ | आत्मस्थ ब्रह्म को धीर ज्ञानी, अनवरत ही देखते ,<br> | ||
+ | उनको ही शाश्वत परम सुख , नहीं अन्य को हो ऋत मते॥ [ १२ ]<br><br> | ||
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+ | है ब्रह्म चेतन नित्य जो कि नित्य बहु जीवात्मा,<br> | ||
+ | के कर्म फल नियमन करे , एकमेव ही परमात्मा.<br> | ||
+ | अति आदि कारण ज्ञान योग से, कर्म योग से प्राप्त हो,<br> | ||
+ | जो जानते , जग चक्र बंधन , सकल उसके समाप्त हों॥ [ १३ ]<br><br> | ||
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+ | न तो सूर्य न ही चन्द्रमा ,न ही तारा गण, न बिजलियाँ ,<br> | ||
+ | होते प्रकाशित तो भला क्या , अग्नि लौकिक है वहॉं.<br> | ||
+ | ज्योतिर्स्वरूपी ब्रह्म ज्योति, से ही सब ज्योतित वहाँ ,<br> | ||
+ | उस ज्योति पुंज समूह को कोई ज्योति दे सकता कहाँ॥ [ १४ ]<br><br> | ||
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+ | इस मध्य में ब्रह्माण्ड के , बसता परम प्रभु सत्य है,<br> | ||
+ | जल में है स्थित अग्नि यद्यपि यह विलक्षण सत्य है.<br> | ||
+ | इस मृत्यु रूपी जग जलधि से पार हो पाता वही,<br> | ||
+ | मर्मज्ञ जो इस तथ्य के , जो अन्य मग है ही नहीं॥ [ १५ ]<br><br> | ||
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+ | ज्ञानस्वरूपी, सर्वसृष्टा, जो काल का भी काल है,<br> | ||
+ | अपने ही उद्भव का स्वयं , कारण है ब्रह्म त्रिकाल है.<br> | ||
+ | जीवात्मा व् प्रकृति का , स्वामी गुणी है गणेश है,<br> | ||
+ | जीवन मरण की गति व् स्थिति , मुक्ति दाता महेश है॥ [ १६ ]<br><br> | ||
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+ | स्थित जगत क स्वरुप में, सर्वज्ञ पूर्ण अनूप है,<br> | ||
+ | ब्रह्माण्ड का रक्षक नियंत्रक , लोक पालों का भूप है.<br> | ||
+ | नहीं दूसरा कोई अन्य शासक , न ही कोई समर्थ है,<br> | ||
+ | करे विश्व सञ्चालन नियंत्रण , किसकी क्या सामर्थ्य है॥ [ १७ ]<br><br> | ||
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+ | निश्चय ही ब्रह्म ने अति प्रथम, ब्रह्मा की रचना रचित की,<br> | ||
+ | फ़िर ज्ञान वेदों का कराया , दिव्यता संचारित की .<br> | ||
+ | वही आत्म बुद्धि प्रकाश कर्ता, ब्रह्म पूज्य प्रणाम है,<br> | ||
+ | मैं मोक्ष का इच्छुक शरणदाता है, प्रभुवर प्राण है॥ [ १८ ]<br><br> | ||
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+ | निर्दोष, निष्क्रिय , शांत , निर्मल, निर्विकारी है सर्वथा.<br> | ||
+ | अमृत स्वरूपी मोक्ष का , प्रभु परम सेतु है यथा .<br> | ||
+ | अति दग्ध उज्जवल , प्रज्जवलित , अंगारे क सम ब्रह्म तो,<br> | ||
+ | निर्मल परम चेतन व् निर्गुण , निराकार अगम्य तो॥ [ १९ ]<br><br> | ||
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+ | यदि चर्मवत मानव कभी स्व से लपेटे ब्रह्म को ,<br> | ||
+ | संभाव्य यदि न कदापि हो, न दुःख कटें बिन ॐ के.<br> | ||
+ | परब्रह्म को जाने बिना , समुदाय दुःख न शेष हो,<br> | ||
+ | एकाग्र मन यदि स्मरण , तो प्रभु कृपा भी विशेष हो॥ [ २० ]<br><br> | ||
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+ | श्वेताश्वर ऋषि ने तो संयम और तप क प्रभाव से,<br> | ||
+ | परब्रह्म की अहैतु की दया , पाई पावन भाव से .<br> | ||
+ | देहाभिमान से शून्य जन को , कथित व् उपदेश की,<br> | ||
+ | वही ब्रह्मविद्या जो की तप संयम से, ऋषि ने निवेश की॥ [ २१ ]<br><br> | ||
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+ | अति पूर्व कल्प में, गूढ़ ज्ञान जो , ब्रह्म का वर्णित हुआ,<br> | ||
+ | वह ही कालांतर ज्ञान निधि वेदान्त में परिणत हुआ.<br> | ||
+ | अंतःकरण शुचि शांत जिसका , ज्ञान अधकारी वही,<br> | ||
+ | स्व पुत्र और स्व शिष्य सात्विक, अन्य अधिकारी नहीं॥ [ २२ ]<br><br> | ||
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+ | जिसकी यथा परमेश में, वैसी ही गुरु में भक्ति है,<br> | ||
+ | उस मनस्वी के हृदय , में ही ब्रह्म की आसक्ति है.<br> | ||
+ | जिज्ञासु जिसमें हो पूर्ण श्रद्धा, भक्ति अधिकारी वही,<br> | ||
+ | मर्मज्ञ वे ही सर्वज्ञ के , ऋत अर्थ को जाने मही॥ [ २३ ]<br><br> | ||
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+ | '''ॐ शान्तिः ! शान्तिः ! शान्तिः !''' |
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स्वभावमेके कवयो वदन्ति कालं तथान्ये परिमुह्यमानाः ।
देवस्यैष महिमा तु लोके येनेदं भ्राम्यते ब्रह्मचक्रम् ॥१॥
कुछ विज जग का मूल कारण, काल कहते, स्वभाव है,
पर वस्तुतः मोहित सभी, कुछ और अन्तः भाव है.
प्रत्यक्ष जो ब्रह्माण्ड वह तो, ब्रह्म की महिमा महे,
यह ब्रह्म चक्र है संचलित, परब्रह्म से, कैसे कहें ? [ १ ]
येनावृतं नित्यमिदं हि सर्वं ज्ञः कालकारो गुणी सर्वविद् यः ।
तेनेशितं कर्म विवर्तते ह पृथिव्यप्तेजोनिलखानि चिन्त्यम् ॥२॥
वह तो काल का भी महाकाल व् विश्व को आवृत किए,
जग सर्व गुण सर्वज्ञ से शासित , हो सब उसके किये .
जल, तेज, वायु, नभ, धरा का है , शक्ति संचालक वही,
चिन्मय का चिंतन चित्र से , मानव करो प्रभु अति मही॥ [ २ ]
तत्कर्म कृत्वा विनिवर्त्य भूयस्तत्त्वस्य तावेन समेत्य योगम् ।
एकेन द्वाभ्यां त्रिभिरष्टभिर्वा कालेन चैवात्मगुणैश्च सूक्ष्मैः ॥३॥
निज शक्ति भूता , पृकृति ब्रह्म ने तो कर्म संपादित किया,
जड़ चेतना दो तत्वों का संयोग प्रतिपादित किया .
सत रज व् तम, आठों प्रकृति और काल के सम्बन्ध से ,
यह जग रचा , ममता, अहंता, मोह तत्व प्रबंध से॥ [ ३ ]
आरभ्य कर्माणि गुणान्वितानि भावांश्च सर्वान् विनियोजयेद्यः ।
तेषामभावे कृतकर्मनाशः कर्मक्षये याति स तत्त्वतोऽन्यः ॥४॥
सत रज व् तम तीनों गुणों, स्व वर्ण आश्रम के यथा
करें आचरण निष्काम वृति प्रभु , को समर्पण हो तथा.
साधक वही कर्मादि फल , विश्वानि भोगों से मुक्त हो,
अथ कर्मों का जब नाश हो, तब ब्रह्म से संयुक्त हो॥ [ ४ ]
आदिः स संयोगनिमित्तहेतुः परस्त्रिकालादकलोऽपि दृष्टः ।
तं विश्वरूपं भवभूतमीड्यं देवं स्वचित्तस्थमुपास्य पूर्वम् ॥५॥
अति आदि कारण ब्रह्म कालों से परे, अतिशय परे.
जीव और प्रकृति संयोग कर्ता, विश्व संचालित करे.
स्तुत्य अन्तः करण स्थित, विश्व रूप विराट है,
अति आदि, कारणहीन , अद्भुत देव है, सम्राट है॥ [ ५ ]
स वृक्षकालाकृतिभिः परोऽन्यो यस्मात् प्रपञ्चः परिवर्ततेऽयम् ।
धर्मावहं पापनुदं भगेशं ज्ञात्वात्मस्थममृतं विश्वधाम ॥६॥
संसार रूप प्रपंच अविरल घूमे , जिसके प्रभाव से,
विश्व रूपी वृक्ष , आकृति परे काल विभाव से.
आकार हीन तथापि जगदाधार, अधिपति ईमहे ,
अमृत स्वरूपी ब्रह्म को , साधक हैं ध्याते धी महे॥ [ ६ ]
तमीश्वराणां परमं महेश्वरं तं देवतानां परमं च दैवतम् ।
पतिं पतीनां परमं परस्ताद्विदाम देवं भुवनेशमीड्यम् ॥७॥
उस ईश्वरों के परम ईश्वर , यह महेश्वर ब्रह्म हैं,
देवों के भी आराध्य , पतियों के पति हैं अगम्य है.
ब्रह्माण्ड के स्वामी परम , स्तुत्य ज्योति रूप हैं
हैं जगत के कारण तथापि , पृथक जग से अनूप हैं॥ [ ७ ]
न तस्य कार्यं करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते ।
परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ॥८॥
वह इन्द्रियों काया विहीन व् सूक्ष्म अति है अदृश्य है,
कोई न उससे है बड़ा , सम दृश्य भी नहीं दृश्य है.
विख्यात है बल ज्ञान उसका ,कर्म भी यश पूर्ण है,
दिव्य शक्ति स्वभाव अनुपम , वृति से परिपूर्ण है॥ [ ८ ]
न तस्य कश्चित् पतिरस्ति लोके न चेशिता नैव च तस्य लिङ्गम् ।
स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः ॥९॥
इस विश्व में कोई भी तो , उस विश्व पति का पति नहीं ,
वही कारणों का परम कारण , कोई भी अधिपति नहीं.
करुणाधिपाधिप ब्रह्म है, वही एक जग का साध्य है,
नहीं जनक उसका कोई भी , वही जग पिता आराध्य है॥ [ ९ ]
यस्तन्तुनाभ इव तन्तुभिः प्रधानजैः स्वभावतः ।
देव एकः स्वमावृणोति स नो दधातु ब्रह्माप्ययम् ॥१०॥
मकड़ी स्व निर्मित तंतुओं से , स्वयं ज्यों आवृत किए,
वैसे नियंता जग रचित कर , स्वयं को परिवृत किए .
इसलिए ही मानवों को तो , ब्रह्म लगता अदृश्य है,
इस रूप में सर्वत्र व्याप्त है , कौन उसके सदृश्य है॥ [ १० ]
एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ॥११॥
वही हृदय रूपी गुफा में , अन्तर्निहित होकर छिपा,
सब प्राणियों में बस रहा, सृष्टि सकल उसकी कृपा.
निर्गुण शुभाशुभ कर्म दृष्टा, साक्षी चेतन शुभ महे,
उस कर्म फल दाता, प्रदाता की कृपा कैसे कहें॥ [ ११ ]
एको वशी निष्क्रियाणां बहूनामेकं बीजं बहुधा यः करोति ।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ॥१२॥
एकमेव ही बहुनाम स्थित , जीवों का अधिपति महा,
जो की प्रकृति रूपी बीज एक, अनेक कर जग रच रहा.
आत्मस्थ ब्रह्म को धीर ज्ञानी, अनवरत ही देखते ,
उनको ही शाश्वत परम सुख , नहीं अन्य को हो ऋत मते॥ [ १२ ]
नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान् ।
तत्कारणं सांख्ययोगाधिगम्यं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥१३॥
है ब्रह्म चेतन नित्य जो कि नित्य बहु जीवात्मा,
के कर्म फल नियमन करे , एकमेव ही परमात्मा.
अति आदि कारण ज्ञान योग से, कर्म योग से प्राप्त हो,
जो जानते , जग चक्र बंधन , सकल उसके समाप्त हों॥ [ १३ ]
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥१४॥
न तो सूर्य न ही चन्द्रमा ,न ही तारा गण, न बिजलियाँ ,
होते प्रकाशित तो भला क्या , अग्नि लौकिक है वहॉं.
ज्योतिर्स्वरूपी ब्रह्म ज्योति, से ही सब ज्योतित वहाँ ,
उस ज्योति पुंज समूह को कोई ज्योति दे सकता कहाँ॥ [ १४ ]
एको हंसः भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्निः सलिले संनिविष्टः ।
तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥१५॥
इस मध्य में ब्रह्माण्ड के , बसता परम प्रभु सत्य है,
जल में है स्थित अग्नि यद्यपि यह विलक्षण सत्य है.
इस मृत्यु रूपी जग जलधि से पार हो पाता वही,
मर्मज्ञ जो इस तथ्य के , जो अन्य मग है ही नहीं॥ [ १५ ]
स विश्वकृद् विश्वविदात्मयोनिर्ज्ञः कालकालो गुणी सर्वविद् यः ।
प्रधानक्षेत्रज्ञपतिर्गुणेशः संसारमोक्षस्थितिबन्धहेतुः ॥१६॥
ज्ञानस्वरूपी, सर्वसृष्टा, जो काल का भी काल है,
अपने ही उद्भव का स्वयं , कारण है ब्रह्म त्रिकाल है.
जीवात्मा व् प्रकृति का , स्वामी गुणी है गणेश है,
जीवन मरण की गति व् स्थिति , मुक्ति दाता महेश है॥ [ १६ ]
स तन्मयो ह्यमृत ईशसंस्थो ज्ञः सर्वगो भुवनस्यास्य गोप्ता ।
य ईशेऽस्य जगतो नित्यमेव नान्यो हेतुर्विद्यत ईशनाय ॥१७॥
स्थित जगत क स्वरुप में, सर्वज्ञ पूर्ण अनूप है,
ब्रह्माण्ड का रक्षक नियंत्रक , लोक पालों का भूप है.
नहीं दूसरा कोई अन्य शासक , न ही कोई समर्थ है,
करे विश्व सञ्चालन नियंत्रण , किसकी क्या सामर्थ्य है॥ [ १७ ]
यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै ।
तं ह देवं आत्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये ॥१८॥
निश्चय ही ब्रह्म ने अति प्रथम, ब्रह्मा की रचना रचित की,
फ़िर ज्ञान वेदों का कराया , दिव्यता संचारित की .
वही आत्म बुद्धि प्रकाश कर्ता, ब्रह्म पूज्य प्रणाम है,
मैं मोक्ष का इच्छुक शरणदाता है, प्रभुवर प्राण है॥ [ १८ ]
निष्कलं निष्क्रियं शान्तं निरवद्यं निरञ्जनम् ।
अमृतस्य परं सेतुं दग्धेन्दनमिवानलम् ॥१९॥
निर्दोष, निष्क्रिय , शांत , निर्मल, निर्विकारी है सर्वथा.
अमृत स्वरूपी मोक्ष का , प्रभु परम सेतु है यथा .
अति दग्ध उज्जवल , प्रज्जवलित , अंगारे क सम ब्रह्म तो,
निर्मल परम चेतन व् निर्गुण , निराकार अगम्य तो॥ [ १९ ]
यदा चर्मवदाकाशं वेष्टयिष्यन्ति मानवाः ।
तदा देवमविज्ञाय दुःखस्यान्तो भविष्यति ॥२०॥
यदि चर्मवत मानव कभी स्व से लपेटे ब्रह्म को ,
संभाव्य यदि न कदापि हो, न दुःख कटें बिन ॐ के.
परब्रह्म को जाने बिना , समुदाय दुःख न शेष हो,
एकाग्र मन यदि स्मरण , तो प्रभु कृपा भी विशेष हो॥ [ २० ]
तपःप्रभावाद् देवप्रसादाच्च ब्रह्म ह श्वेताश्वतरोऽथ विद्वान् ।
अत्याश्रमिभ्यः परमं पवित्रं प्रोवाच सम्यगृषिसङ्घजुष्टम् ॥२१॥
श्वेताश्वर ऋषि ने तो संयम और तप क प्रभाव से,
परब्रह्म की अहैतु की दया , पाई पावन भाव से .
देहाभिमान से शून्य जन को , कथित व् उपदेश की,
वही ब्रह्मविद्या जो की तप संयम से, ऋषि ने निवेश की॥ [ २१ ]
वेदान्ते परमं गुह्यं पुराकल्पे प्रचोदितम् ।
नाप्रशान्ताय दातव्यं नापुत्रायाशिष्याय वा पुनः ॥२२॥
अति पूर्व कल्प में, गूढ़ ज्ञान जो , ब्रह्म का वर्णित हुआ,
वह ही कालांतर ज्ञान निधि वेदान्त में परिणत हुआ.
अंतःकरण शुचि शांत जिसका , ज्ञान अधकारी वही,
स्व पुत्र और स्व शिष्य सात्विक, अन्य अधिकारी नहीं॥ [ २२ ]
यस्य देवे परा भक्तिः यथा देवे तथा गुरौ ।
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ॥२३॥
जिसकी यथा परमेश में, वैसी ही गुरु में भक्ति है,
उस मनस्वी के हृदय , में ही ब्रह्म की आसक्ति है.
जिज्ञासु जिसमें हो पूर्ण श्रद्धा, भक्ति अधिकारी वही,
मर्मज्ञ वे ही सर्वज्ञ के , ऋत अर्थ को जाने मही॥ [ २३ ]
ॐ शान्तिः ! शान्तिः ! शान्तिः !