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अब ईश्वर नहीं पहले की तरह उदार
न ही वे नदियाँ उन तटों पर।
सांझ के विशाल द्वारों पर
चली आओ, ओ ख़ूबसूरत फ़ाख़्ताओ !

और मैं ठंडी रेत पर लेटी
चल दूंगी बिना गिनती, बिना नाम के उस दिन...
जिस तरह पुरानी छोड़ देता है साँप केंचुल
छोड़ आई हूँ पीछे अपना यौवन।

रचनाकाल : 17 अक्तूबर 1921

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह