भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"अब / मरीना स्विताएवा" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मरीना स्विताएवा |संग्रह=आएंगे दिन कविताओं के / म...) |
(कोई अंतर नहीं)
|
01:22, 25 दिसम्बर 2008 के समय का अवतरण
अब ईश्वर नहीं पहले की तरह उदार
न ही वे नदियाँ उन तटों पर।
सांझ के विशाल द्वारों पर
चली आओ, ओ ख़ूबसूरत फ़ाख़्ताओ !
और मैं ठंडी रेत पर लेटी
चल दूंगी बिना गिनती, बिना नाम के उस दिन...
जिस तरह पुरानी छोड़ देता है साँप केंचुल
छोड़ आई हूँ पीछे अपना यौवन।
रचनाकाल : 17 अक्तूबर 1921
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह