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घने वनों के पार
चट्टानों पर गिरती जलधाराओं का
जो खनखनाता निनाद है...
सगर की उत्तुंग उठी गर्वीली लहरों की
कगार पर
विक्षुब्ध पछाड़ों का
जो हिनहिनाता निनाद है...
ऊँचे कद्दावर दरख़्तों को
हिलाती
गुंजान हवाओं का
जो खिलखिलाता निनाद है...
गूँजती हुई वीणा की तरंगों पर
थिरकता
जो दिपदिपाता निनाद है...
वही निनाद... मैं हूँ!
अपनी ही पुकार की अनुगूँजों के पीछे
बजता हुआ...।