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वसन्त के दिन हैं
रास्ते से चलता हूँ
एक पत्ती गिरती हुई छूती है
कोंपलों की तरह निकलते हैं बच्चे
मैं बहुत सुबह जाग पड़ता हूँ
जैसे मौसम से निकला हूँ
और सबको ढूंढ़ता हूँ।
इतना हलका और
इतना भारी हो गया हूँ
कि हँस पड़ता हूँ
उदासी से निकल
करूणा में उतरा रहा हूँ
चल रहा हूँ मैं
मैं ठहर नहीं पा रहा हूँ।