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18:12, 8 अक्टूबर 2008 का अवतरण

कवि: भारतभूषण अग्रवाल

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खाना खा कर कमरे में बिस्तर पर लेटा

सोच रहा था मैं मन ही मन : 'हिटलर बेटा

बड़ा मूर्ख है,जो लड़ता है तुच्छ-क्षुद्र मिट्टी के कारण

क्षणभंगुर ही तो है रे ! यह सब वैभव-धन।

अन्त लगेगा हाथ न कुछ, दो दिन का मेला।

लिखूँ एक ख़त, हो जा गाँधी जी का चेला।

वे तुझ को बतलायेंगे आत्मा की सत्ता

होगी प्रकट अहिंसा की तब पूर्ण महत्ता ।

कुछ भी तो है नहीं धरा दुनिया के अन्दर ।'

छत पर से पत्नी चिल्लायी : " दौड़ो , बन्दर !"