"ऊँचाई / अटल बिहारी वाजपेयी" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) छो |
(हिज्जे) |
||
पंक्ति 10: | पंक्ति 10: | ||
:::जमती है सिर्फ बर्फ,<br> | :::जमती है सिर्फ बर्फ,<br> | ||
− | :::जो, | + | :::जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और,<br> |
:::मौत की तरह ठंडी होती है।<br> | :::मौत की तरह ठंडी होती है।<br> | ||
:::खेलती, खिल-खिलाती नदी,<br> | :::खेलती, खिल-खिलाती नदी,<br> | ||
पंक्ति 21: | पंक्ति 21: | ||
ऐसी ऊँचाई<br> | ऐसी ऊँचाई<br> | ||
जिसका दरस हीन भाव भर दे,<br> | जिसका दरस हीन भाव भर दे,<br> | ||
− | + | अभिनंदन की अधिकारी है,<br> | |
आरोहियों के लिये आमंत्रण है,<br> | आरोहियों के लिये आमंत्रण है,<br> | ||
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,<br><br> | उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,<br><br> | ||
पंक्ति 28: | पंक्ति 28: | ||
:::वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,<br> | :::वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,<br> | ||
:::ना कोई थका-मांदा बटोही,<br> | :::ना कोई थका-मांदा बटोही,<br> | ||
− | :::उसकी | + | :::उसकी छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है।<br><br> |
सच्चाई यह है कि<br> | सच्चाई यह है कि<br> | ||
− | केवल ऊँचाई ही | + | केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती,<br><br> |
सबसे अलग-थलग,<br> | सबसे अलग-थलग,<br> | ||
परिवेश से पृथक,<br> | परिवेश से पृथक,<br> | ||
− | अपनों से कटा- | + | अपनों से कटा-बँटा,<br> |
शून्य में अकेला खड़ा होना,<br> | शून्य में अकेला खड़ा होना,<br> | ||
पहाड़ की महानता नहीं,<br> | पहाड़ की महानता नहीं,<br> | ||
पंक्ति 47: | पंक्ति 47: | ||
:::मन ही मन रोता है।<br><br> | :::मन ही मन रोता है।<br><br> | ||
− | + | ज़रूरी यह है कि<br> | |
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,<br> | ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,<br> | ||
जिससे मनुष्य,<br> | जिससे मनुष्य,<br> | ||
− | + | ठूँठ सा खड़ा न रहे,<br> | |
औरों से घुले-मिले,<br> | औरों से घुले-मिले,<br> | ||
किसी को साथ ले,<br> | किसी को साथ ले,<br> | ||
पंक्ति 62: | पंक्ति 62: | ||
धरती को बौनों की नहीं,<br> | धरती को बौनों की नहीं,<br> | ||
− | ऊँचे कद के | + | ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है।<br> |
इतने ऊँचे कि आसमान छू लें,<br> | इतने ऊँचे कि आसमान छू लें,<br> | ||
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,<br><br> | नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,<br><br> | ||
पंक्ति 68: | पंक्ति 68: | ||
:::किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,<br> | :::किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,<br> | ||
:::कि पाँव तले दूब ही न जमे,<br> | :::कि पाँव तले दूब ही न जमे,<br> | ||
− | :::कोई | + | :::कोई काँटा न चुभे,<br> |
:::कोई कली न खिले।<br><br> | :::कोई कली न खिले।<br><br> | ||
न वसंत हो, न पतझड़,<br> | न वसंत हो, न पतझड़,<br> | ||
− | + | हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,<br> | |
मात्र अकेलापन का सन्नाटा।<br><br> | मात्र अकेलापन का सन्नाटा।<br><br> | ||
:::मेरे प्रभु!<br> | :::मेरे प्रभु!<br> | ||
:::मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,<br> | :::मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,<br> | ||
− | ::: | + | :::ग़ैरों को गले न लगा सकूँ,<br> |
:::इतनी रुखाई कभी मत देना।<br><br> | :::इतनी रुखाई कभी मत देना।<br><br> |
17:47, 29 अप्रैल 2008 का अवतरण
ऊँचे पहाड़ पर,
पेड़ नहीं लगते,
पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है।
- जमती है सिर्फ बर्फ,
- जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और,
- मौत की तरह ठंडी होती है।
- खेलती, खिल-खिलाती नदी,
- जिसका रूप धारण कर,
- अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।
- जमती है सिर्फ बर्फ,
ऐसी ऊँचाई,
जिसका परस
पानी को पत्थर कर दे,
ऐसी ऊँचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे,
अभिनंदन की अधिकारी है,
आरोहियों के लिये आमंत्रण है,
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,
- किन्तु कोई गौरैया,
- वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,
- ना कोई थका-मांदा बटोही,
- उसकी छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है।
- किन्तु कोई गौरैया,
सच्चाई यह है कि
केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती,
सबसे अलग-थलग,
परिवेश से पृथक,
अपनों से कटा-बँटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना,
पहाड़ की महानता नहीं,
मजबूरी है।
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है।
- जो जितना ऊँचा,
- उतना एकाकी होता है,
- हर भार को स्वयं ढोता है,
- चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
- मन ही मन रोता है।
- जो जितना ऊँचा,
ज़रूरी यह है कि
ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,
जिससे मनुष्य,
ठूँठ सा खड़ा न रहे,
औरों से घुले-मिले,
किसी को साथ ले,
किसी के संग चले।
- भीड़ में खो जाना,
- यादों में डूब जाना,
- स्वयं को भूल जाना,
- अस्तित्व को अर्थ,
- जीवन को सुगंध देता है।
- भीड़ में खो जाना,
धरती को बौनों की नहीं,
ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है।
इतने ऊँचे कि आसमान छू लें,
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,
- किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,
- कि पाँव तले दूब ही न जमे,
- कोई काँटा न चुभे,
- कोई कली न खिले।
- किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,
न वसंत हो, न पतझड़,
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,
मात्र अकेलापन का सन्नाटा।
- मेरे प्रभु!
- मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
- ग़ैरों को गले न लगा सकूँ,
- इतनी रुखाई कभी मत देना।
- मेरे प्रभु!