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"काशी के घाट पर / प्रभाकर माचवे" के अवतरणों में अंतर

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निशि मेघाकुल...<br>
 
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अब डोंगी भी हिल-डोल उठी, पाकर गंगा का दूर तीर<br>
 
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मनुआ अधीर, नयन के नीर से बोझिल गहरी बिसुध पीर<br>

19:31, 31 अगस्त 2006 का अवतरण

कवि: प्रभाकर माचवे

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निशि मेघाकुल...

अमित असित धूमिल मेघों से भरा हुआ नभ का पड़ाव

शशि की झिलमिल-

छोटी-सी लहरों में डगमग पथहीन नाव

किस मृगनैनी की चपल-चपल-

चितवन की सुधि से परिचालित युव-मनोभाव !

शशि न देख किसी का दिल

रह-रह कस के, स्मर कर प्रिय का दुराव-

छिन में आलोकित हो उठती शत-शत तरंग

मन में आलोड़ित सौ उमंग, सिहरते अंग
उड़-उड़ जाते हैं सुधि-विहंग
कुछ दिशा-रहित, कुछ लक्ष्य-भ्रान्त
कुछ सखा-सहित, कुछ यों असंग-
सब ही अशान्त;

ज्योत्स्ना का छिन में कुम्हलाता

लहरिल सम्मोहक मदिर मान

जोगी हो मोहातुर गाता

मन में तुषार-मय विदा-गान;

प्रत्यक्ष भाव जब सपनों की संचित रुझान

जब बाँध रखे वक्ष से वक्ष
बाँहो में भर कर विकल बाँह
जाना था किसने नेह राह का
यह विषाक्त भवितव्य, आह !

बँधना प्राणों से मुक प्राण...
है दक्ष-यज्ञ का संविधान
उर की ऊमा का लक्ष-लक्ष अंशों में पाना मरण-दान !
अब डोंगी भी हिल-डोल उठी, पाकर गंगा का दूर तीर
मनुआ अधीर, नयन के नीर से बोझिल गहरी बिसुध पीर
छितरा-छितरा-सा व्योमघाट पर छायाभा का अजब साथ-
आखिर उर में भी डोल उठी, कुछ मावस, कुछ रुपहली रात !

छू चली पुरातन नेह-बात
रोमल हो उठे गात-गात।

टिम-टिम तारा ऊपर सभीत
खेया का कम्पित कंठ-गीत
आ भर लूँ हिय में तुझे मीत...
आ पास और उत्कटता से...

उत्ताल लहर की मर्ज़ी पर
खो दें जीवन पल-कल्प प्रहर;
एकान्त सत्य बहते रहना-
निज बिधा किसी से क्या कहना ?
सुधि-सम्बल ले चिर-एकाकी
बस सफ़र-सफ़र;

आ पास और तन्मयता से-

अब इन लहरों की मर्ज़ी पर,
मिल कर जीवन में जीवन-स्वर,
हो जायें अमर, निर्भर, अन्तर
उत्ताल परंगों की गति पर-

क्या पता कहाँ आना-जाना क्या कूलों की परवाह, पिया !
इस क्षण दो ओठों में गाना दो ओठों में हो चाह, पिया !
वह हिलराता, मदमाता हो, मौजें लेता दरियाव, पिया !
मेघों में मुँह ढाँके मयंक, सुधि मन में गिनती घाव, पिया !