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19:09, 31 अगस्त 2006 का अवतरण
कवि: प्रभाकर माचवे
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कापालिक हँसता है ।
पगले तू क्यों उस में फँसता है ? रे दुनियादारी !
- यह महीन मलमल की सारी
- उस के नीचे नरम गुलाबी चोली से ये कसे हुए
- पीनोन्न्त स्तन
- यह कुंकुम-अक्षत से चर्चित माथा, यह तन
- किसी सुहागिन की अर्थी पर
- बड़ी-बड़ी चीलों के मानो तीक्ष्ण चक्षु ये बसे हुए पर
जीवन याँ सस्ता है
मरना यहाँ नहीं डँसता है
कापालिक हँसता है।
- मरघट
- औघड़ का मठ
- चट-चट-खट-खट जलती हड्डी-मज्जा, झटपट
- कुत्ते भौंक रहे हैं, हो-हो-
- स्यारों की यकसाँ चिल्लाहट, छीन, औ' झपट
- नदी किनारा
- डूब रहा सांय-तारा
- चीख किसी पंछी की चीं-चीं
- जिसके अंडो और घोसले पर भूखे-से
- किसी बाज़ ने छापा मारा।
- क्या यों इकटक देख रहे हो
- सुन्दर सत्य तुम्हारा, वैसा
- यही असुन्दर सत्य हमारा।
परवशता है ।
और नदी की धारा में भी, लो कृशता है,
मोह-छोह हमको ग्रसता है
कापालिक हँसता है ।
- यही प्यार की नाटक-भाषा
- यही दिलजलों का न तमाशा !
- मरी सुहागिन, दो दिन बीते
- त्यों ही नये ब्याह की आशा ?
- पंछी चीं-चीं कर थकने पर
- पुन: नया तरु
- नया-नया घर, नवीन कोटर
- यही तुम्हारी प्रामाणिकता ?
- जिसका अर्थ क्षणिकता ।
- सिकता-सिकता...केवल सिकता
- किस ने पाया है रे "जीवन" ?
- वह तो "पारा" ।
- यहाँ आज सब कुछ है बिकता
- हृदय और ईमान, देवता !
- सब ममता की यहाँ दिखावट
- शून्य, खोखली और बनावट ।
- सभी स्वार्थमय वहाँ बुलाहट,
- किस ने पाई सच्ची आहट...
किस ने जाना वह रस्ता है
किस ने पाया वह रस्ता है
कापालिक केवल हँसता है ।
- अट्टाहस करता है, आँखें लाल-लाल
- चहुं ओर डाल
- हँसता है
कापालिक केवल हँसता है ।