भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"वो धूप उजली सी, सुहानी शाम भी नहीं / श्रद्धा जैन" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
पंक्ति 14: | पंक्ति 14: | ||
गूंगा नहीं तू, बहरी ये आवाम भी नहीं | गूंगा नहीं तू, बहरी ये आवाम भी नहीं | ||
− | जब इश्क़ दौलत के तराज़ू पे | + | जब इश्क़ दौलत के तराज़ू पे बिक गया |
आती वफ़ा डर के ही लब-ए-बाम भी नहीं | आती वफ़ा डर के ही लब-ए-बाम भी नहीं | ||
हर एक को कहती हो अपना दोस्त तुम जहाँ | हर एक को कहती हो अपना दोस्त तुम जहाँ | ||
इक दोस्त ही मिलना, वहाँ पे आम भी नहीं</poem> | इक दोस्त ही मिलना, वहाँ पे आम भी नहीं</poem> |
15:36, 21 मई 2009 का अवतरण
वो धूप उजली सी, सुहानी शाम भी नहीं
परदेश में घर जैसा तो, आराम भी नहीं
सपने हुए है पूरे, गर साथी मिरे कहो
क्यूँ नज़रों में दिखता, खुशी का नाम भी नहीं
तू अपने हक़ में बोलने की सोच तो ज़रा
गूंगा नहीं तू, बहरी ये आवाम भी नहीं
जब इश्क़ दौलत के तराज़ू पे बिक गया
आती वफ़ा डर के ही लब-ए-बाम भी नहीं
हर एक को कहती हो अपना दोस्त तुम जहाँ
इक दोस्त ही मिलना, वहाँ पे आम भी नहीं