भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"दुष्काल / केशव शरण" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केशव शरण |संग्रह=जिधर खुला व्योम होता है / केशव श...) |
(कोई अंतर नहीं)
|
10:23, 30 मई 2009 के समय का अवतरण
जीवन का ताप देते-देते
संताप देने लगे
क्यों सूर्य !
स्वयं सूरजमुखी का सर लटक गया है
लता सूख गई है फूलों की
हरा सब झुरा गया है
डाली-डाली विवस्त्र है
जल और छाया का हो गया अकाल है
तुम्हारा लाया
यह कैसा उष्काल है
हिमकाल की यातनाओं से उबारनहार !