भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"गये दिनों का सुराग़ लेकर / नासिर काज़मी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKRachna |रचनाकार=नासिर काज़मी }} Category:गज़ल गये दिनों का सुराग़ लेकर किधर से आ...)
 
पंक्ति 10: पंक्ति 10:
 
वो बू-ए-गुल था के नग़्मा-ए-जान मेरे तो दिल में उतर गया वो <br><br>
 
वो बू-ए-गुल था के नग़्मा-ए-जान मेरे तो दिल में उतर गया वो <br><br>
  
वो मैकदे को जगानेवाला वो रात की नींद उड़ानेवाला <br>
+
वो मयकदे को जगानेवाला वो रात की नींद उड़ानेवाला <br>
 
न जाने क्या उस के जी में आई कि शाम होते ही घर गया वो <br><br>
 
न जाने क्या उस के जी में आई कि शाम होते ही घर गया वो <br><br>
  
कुछ अब सम्भलने लगी है जाँ भी बदल चला रन्ग आस्माँ भी <br>
+
कुछ अब संभलने लगी है जाँ भी बदल चला रंग-ए-आस्माँ भी <br>
 
जो रात भारी थी टल गई है जो दिन कड़ा था गुज़र गया वो <br><br>
 
जो रात भारी थी टल गई है जो दिन कड़ा था गुज़र गया वो <br><br>
  
पंक्ति 19: पंक्ति 19:
 
जो क़ाफ़िला मेरा हमसफ़र था मिस्ल-ए-गर्द-ए-सफ़र गया वो <br><br>
 
जो क़ाफ़िला मेरा हमसफ़र था मिस्ल-ए-गर्द-ए-सफ़र गया वो <br><br>
  
बस एक मन्ज़िल है बुलहवस की हज़ार रस्ते हैं अहल-ए-दिल के <br>
+
बस एक मंज़िल है बुलहवस की हज़ार रास्ते हैं अहल-ए-दिल के <br>
 
ये ही तो है फ़र्क़ मुझ में उस में गुज़र गया मैं ठहर गया वो <br><br>
 
ये ही तो है फ़र्क़ मुझ में उस में गुज़र गया मैं ठहर गया वो <br><br>
  
वो जिस के शाने पे हाथ रख कर सफ़र किया तूने मन्न्ज़िलों का <br>
+
वो जिस के शाने पे हाथ रख कर सफ़र किया तूने मंज़िलों का <br>
 
तेरी गली से न जाने क्यूँ आज सर झुकाये गुज़र गया वो <br><br>
 
तेरी गली से न जाने क्यूँ आज सर झुकाये गुज़र गया वो <br><br>
  

01:44, 31 मई 2009 का अवतरण

गये दिनों का सुराग़ लेकर किधर से आया किधर गया वो
अजीब मानूस अजनबी था मुझे तो हैरान कर गया वो

ख़ुशी की रुत हो के ग़म का मौसम नज़र उसे ढूँढती है हर दम
वो बू-ए-गुल था के नग़्मा-ए-जान मेरे तो दिल में उतर गया वो

वो मयकदे को जगानेवाला वो रात की नींद उड़ानेवाला
न जाने क्या उस के जी में आई कि शाम होते ही घर गया वो

कुछ अब संभलने लगी है जाँ भी बदल चला रंग-ए-आस्माँ भी
जो रात भारी थी टल गई है जो दिन कड़ा था गुज़र गया वो

शिकस्त पा राह में खड़ा हूँ गये दिनों को बुला रहा हूँ
जो क़ाफ़िला मेरा हमसफ़र था मिस्ल-ए-गर्द-ए-सफ़र गया वो

बस एक मंज़िल है बुलहवस की हज़ार रास्ते हैं अहल-ए-दिल के
ये ही तो है फ़र्क़ मुझ में उस में गुज़र गया मैं ठहर गया वो

वो जिस के शाने पे हाथ रख कर सफ़र किया तूने मंज़िलों का
तेरी गली से न जाने क्यूँ आज सर झुकाये गुज़र गया वो

वो हिज्र कि रात का सितार वो हमनफ़स हमसुख़न हमारा
सदा रहे उस का नाम प्यारा सुना है कल रात मर गया वो

बस एक मोती सी छब दिखाकर बस एक मीठी सी धुन सुना कर
सितारा-ए-शाम बन के आया बरंग-ए-ख़याल-ए-सहर गया वो

न अब वो यादों का चढ़ता दरिया न फ़ुर्सतों की उदास बरखा
यूँ ही ज़रा सी कसक है दिल में जो ज़ख़्म गहरा था भर गया वो

वो रात का बेनवा मुसाफ़िर वो तेरा शायर वो तेरा "नासिर"
तेरी गली तक तो हम ने देखा फिर न जाने किधर गया वो