भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"तुम्हारे शहर में / प्रेमचन्द गांधी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रेमचन्द गांधी }} <Poem> जब भी इस शहर में दाखिल हो...)
 
छो (तुम्हारे शहर में @ प्रेमचन्द गांधी का नाम बदलकर तुम्हारे शहर में / प्रेमचन्द गांधी कर दिया गया है)
 
(कोई अंतर नहीं)

16:51, 26 जुलाई 2009 के समय का अवतरण


जब भी इस शहर में दाखिल होता हूँ
तुम्हारी याद आती है
वो तुम्हारा मोरपंखी नीला सूट
आँखों के आगे आसमान की तरह छा जाता है

वो दिन अब भी याद आते हैं
जब तुम्हारी मुस्कान में
चाँद का अक्स चमकता था
और हमारी बातों में परिन्दों का गान सुनाई देता था

वो तुम्हारा हरा कढ़ाईदार सूट
एक सरसब्ज बागीचा था
जो तुम्हारी देह-धरा को अलौकिक बनाता था

जब तुम झिड़कती थीं मुझे
मैं बच्चा हो जाता था
और तुम्हारी नाराज़गी पर
बुजुर्ग बनना पड़ता था मुझे

वो दिन अब नहीं लौटेंगे मम्मो
लेकिन मैं हूँ कि
बार-बार लौट आता हूँ इस शहर में
पता नहीं अब हम कभी मिलें न मिलें
पता नहीं इस विशाल शहर के किस कोने-अन्तरे में
तुम सम्भाल रही होंगी अपना घर
और एक मैं हूँ कि
हर फुरसत में सड़कों पर
खोजता फिरता हूँ
वही मोरपंखी नीला और हरा कढ़ाईदार सूट 