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क्षेत्र क्षीण हो जाए न साथी--
हल की मूठ गहो!
नवोन्मेष को मुखरित स्वर दो,
अभ्यागत आगत को बल दो,
अंकुर को जल-धूप--
पवन से कह दो, समुद बहो।
हल की मूठ गहो।
क्षेत्र क्षीण हो जाए न साथी--
हल की मूठ गहो!
अगणित कुश-कंटक उग आए,
बैलों से बबूल टकराए।
ये हैं, कृषि के रोग--
बीज के दुश्मन,
इन्हें दहो।
हल की मूठ गहो।
क्षेत्र क्षीण हो जाए न साथी--
हल की मूठ गहो!