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समय की चादर / रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
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20:06, 18 सितम्बर 2009
<poem>
अभी समय की चादर को बिछाया है
दिन के
तिकए
तकिए
को सिरहाने रखा है
जि़ंदगी का बहुत सा अधबुना हिस्सा यों ही पड़ा है
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