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"स्त्री का सोचना एकान्त में / कात्यायनी" के अवतरणों में अंतर

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03:20, 15 अक्टूबर 2009 का अवतरण

न जाने क्या सूझा
एक दिन स्त्री को
खेल-खेल में भागती हुई
भाषा में समा गई
छिपकर बैठ गई।

उस दिन
तानाशाहों को
नींद नहीं आई रात भर।

उस दिन
खेल न सके कविगण
अग्निपिण्ड के मानिंद
तपते शब्दों से।

भाषा चुप रही सारी रात।

रुद्रवीणा पर
कोई प्रचण्ड राग बजता रहा।
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न जाने क्या सूझा

एक दिन स्त्री को

खेल-खेल में भागती हुई

भाषा में समा गई

छिपकर बैठ गई।



उस दिन

तानाशाहों को

नींद नहीं आई रात भर।



उस दिन

खेल न सके कविगण

अग्निपिण्ड के मानिंद

तपते शब्दों से।



भाषा चुप रही सारी रात।



रुद्रवीणा पर

कोई प्रचण्ड राग बजता रहा।



केवल बच्चे

निर्भीक

गलियों में खेलते रहे।