"कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग / भाग 5" के अवतरणों में अंतर
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19:39, 21 अगस्त 2008 के समय का अवतरण
जो अखिल कल्याणमय है व्यक्ति तेरे प्राण में,
कौरवों के नाश पर है रो रहा केवल वही।
किन्तु, उसके पास ही समुदायगत जो भाव हैं,
पूछ उनसे, क्या महाभारत नहीं अनिवार्य था?
हारकर धन-धाम पाण्डव भिक्षु बन जब चल दिये,
पूछ, तब कैसा लगा यह कृत्य उस समुदाय को,
जो अनय का था विरोधी, पाण्डवों का मित्र था।
- और जब तूने उलझ कर व्यक्ति के सद्धर्म में
- क्लीव-सा देखा किया लज्जा-हरण निज नारि का,
- (द्रौपदी के साथ ही लज्जा हरी थी जा रही
- उस बड़े समुदाय की, जो पाण्डवों के साथ था)
- और तूने कुछ नहीं उपचार था उस दिन किया;
- सो बता क्या पुण्य था? य पुण्यमय था क्रोध वह,
- जल उठा था आग-सा जो लोचनों में भीम के?
- और जब तूने उलझ कर व्यक्ति के सद्धर्म में
कायरों-सी बात कर मुझको जला मत; आज तक
है रहा आदर्श मेरा वीरता, बलिदान ही;
जाति-मन्दिर में जलाकर शूरता की आरती,
जा रहा हूँ विश्व से चढ युद्ध के ही यान पर।
- त्याग, तप, भिक्षा? बहुत हूँ जानता मैं भी, मगर,
- त्याग, तप, भिक्षा, विरागी योगियों के धर्म हैं;
- याकि उसकी नीति, जिसके हाथ में शायक नहीं;
- या मृषा पाषण्ड यह उस कापुरुष बलहीन का,
- जो सदा भयभीत रहता युद्ध से यह सोचकर
- ग्लानिमय जीवन बहुत अच्छा, मरण अच्छा नहीं
- त्याग, तप, भिक्षा? बहुत हूँ जानता मैं भी, मगर,
त्याग, तप, करुणा, क्षमा से भींग कर,
व्यक्ति का मन तो बली होता, मगर,
हिंस्र पशु जब घेर लेते हैं उसे,
काम आता है बलिष्ठ शरीर ही।
- और तू कहता मनोबल है जिसे,
- शस्त्र हो सकता नहीं वह देह का;
- क्षेत्र उसका वह मनोमय भूमि है,
- नर जहाँ लड़ता ज्वलन्त विकार से।
- और तू कहता मनोबल है जिसे,
कौन केवल आत्मबल से जूझ कर
जीत सकता देह का संग्राम है?
पाश्विकता खड्ग जब लेती उठा,
आत्मबल का एक बस चलता नहीं।
- जो निरामय शक्ति है तप, त्याग में,
- व्यक्ति का ही मन उसे है मानता;
- योगियों की शक्ति से संसार में,
- हारता लेकिन, नहीं समुदाय है।
- जो निरामय शक्ति है तप, त्याग में,
कानन में देख अस्थि-पुंज मुनिपुंगवों का
- दैत्य-वध का था किया प्रण जब राम ने;
- दैत्य-वध का था किया प्रण जब राम ने;
"मातिभ्रष्ट मानवों के शोध का उपाय एक
- शस्त्र ही है?" पूछा था कोमलमना वाम ने।
- शस्त्र ही है?" पूछा था कोमलमना वाम ने।
नहीं प्रिये, सुधर मनुष्य सकता है तप,
- त्याग से भी," उत्तर दिया था घनश्याम ने,
- त्याग से भी," उत्तर दिया था घनश्याम ने,
"तप का परन्तु, वश चलता नहीं सदैव
- पतित समूह की कुवृत्तियों के सामने।"
- पतित समूह की कुवृत्तियों के सामने।"