भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"घूरती हुई आँखें / अजित कुमार" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
 
|संग्रह=अकेले कंठ की पुकार / अजित कुमार
 
}}
 
}}
 
+
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 
रात थी अँधेरी और
 
रात थी अँधेरी और
 
 
भूतों की टोली
 
भूतों की टोली
 
 
पीपल के तले और
 
पीपल के तले और
 
 
बेलों के झुर्मुट में
 
बेलों के झुर्मुट में
 
 
देती थी फेरी ।
 
देती थी फेरी ।
 
  
 
‘भूतों से क्या डरना ।
 
‘भूतों से क्या डरना ।
 
 
आखिर तो हम सबको मरना है,
 
आखिर तो हम सबको मरना है,
 
 
और भला क्या करना ।
 
और भला क्या करना ।
 
 
हम जो कहलाते हैं भारत के पूत ।
 
हम जो कहलाते हैं भारत के पूत ।
 
 
-हम भी तो होयेंगे ऐसे ही भूत ।‘
 
-हम भी तो होयेंगे ऐसे ही भूत ।‘
 
 
इसी तरह सोच-सोच
 
इसी तरह सोच-सोच
 
 
हिम्मत बँधाई मैंने काँपते-से मन को ।
 
हिम्मत बँधाई मैंने काँपते-से मन को ।
 
  
 
और तभी कमरे के किसी एक कोने में
 
और तभी कमरे के किसी एक कोने में
 
 
दिखीं मुझे बेधती-सी चमकदार आँखें ।
 
दिखीं मुझे बेधती-सी चमकदार आँखें ।
 
 
काँपता-सा मन हुआ जैसे निस्पन्द ।
 
काँपता-सा मन हुआ जैसे निस्पन्द ।
 
 
डर के मारे मैंने आँखें कीं बद ।
 
डर के मारे मैंने आँखें कीं बद ।
 
  
 
बीत गये कई सल …
 
बीत गये कई सल …
 
 
लेकिन अब भि तो मेरा है वही हाल ।
 
लेकिन अब भि तो मेरा है वही हाल ।
 
 
एक उसी घटना को पाता मक़िं नहीं भूल ।
 
एक उसी घटना को पाता मक़िं नहीं भूल ।
 
 
याद मुझे आती :
 
याद मुझे आती :
 
 
ज्यों आते थे याद वर्ड्सवर्थ को डैफ़ोडिल फूल ।
 
ज्यों आते थे याद वर्ड्सवर्थ को डैफ़ोडिल फूल ।
 
 
दीखतीं अँधेरे में हैं मुझको अब भी
 
दीखतीं अँधेरे में हैं मुझको अब भी
 
 
चमकीली, तेज़, बेधतीं, सम्मोहन करतीं-
 
चमकीली, तेज़, बेधतीं, सम्मोहन करतीं-
 
 
बिल्ली की दो आँखें …
 
बिल्ली की दो आँखें …
 
  
 
अन्धकार पाप है । और
 
अन्धकार पाप है । और
 
 
अज्ञान भी ।
 
अज्ञान भी ।
 
 
लेकिन जिसको बेधें बिल्ली की आँखें-
 
लेकिन जिसको बेधें बिल्ली की आँखें-
 
 
रहकर अँधेरे में भी, प्प्प क्या करेगा वह-
 
रहकर अँधेरे में भी, प्प्प क्या करेगा वह-
 
 
घूरती हुई आँखों की स्थिति का ज्ञानी ।
 
घूरती हुई आँखों की स्थिति का ज्ञानी ।
 +
</poem>

20:44, 1 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

रात थी अँधेरी और
भूतों की टोली
पीपल के तले और
बेलों के झुर्मुट में
देती थी फेरी ।

‘भूतों से क्या डरना ।
आखिर तो हम सबको मरना है,
और भला क्या करना ।
हम जो कहलाते हैं भारत के पूत ।
-हम भी तो होयेंगे ऐसे ही भूत ।‘
इसी तरह सोच-सोच
हिम्मत बँधाई मैंने काँपते-से मन को ।

और तभी कमरे के किसी एक कोने में
दिखीं मुझे बेधती-सी चमकदार आँखें ।
काँपता-सा मन हुआ जैसे निस्पन्द ।
डर के मारे मैंने आँखें कीं बद ।

बीत गये कई सल …
लेकिन अब भि तो मेरा है वही हाल ।
एक उसी घटना को पाता मक़िं नहीं भूल ।
याद मुझे आती :
ज्यों आते थे याद वर्ड्सवर्थ को डैफ़ोडिल फूल ।
दीखतीं अँधेरे में हैं मुझको अब भी
चमकीली, तेज़, बेधतीं, सम्मोहन करतीं-
बिल्ली की दो आँखें …

अन्धकार पाप है । और
अज्ञान भी ।
लेकिन जिसको बेधें बिल्ली की आँखें-
रहकर अँधेरे में भी, प्प्प क्या करेगा वह-
घूरती हुई आँखों की स्थिति का ज्ञानी ।