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"महानगर: कुहरा / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

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संसार एक। 
  
झँझरे मटमैले प्रकाश के कन्थे<br>
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सीली सड़कों पर कहराती ठिलती जाती
जहाँ-तहाँ कुहरे में लटक रहे हैं।<br>
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संसार एक।<br><br>
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बनाती जाती है आवर्त्त-विवर्त्त<br>
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अनवरत बांध रहीं<br>
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उन अधर-टँके सब संसारों को<br>
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होगा आसन<br>
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किस निराधार नारायण का?<br><br>
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या कि गाड़ियों की
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अंगार-कगारी तमोनदी में। 
  
ये कितने निराधार नर<br>
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ओ नर! ओ नारायण!  
क्षण-भर हर चादर की ओट उझक<br>
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उभय-बन्ध ओ निराधार!  
तिर-घिर आते हैं<br>
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ऊभ-चूभ कर<br>
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पुनः डूबने को—<br>
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चादर की ओट<br>
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या कि गाड़ियों की<br>
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अंगार-कगारी तमोनदी में।<br><br>
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ओ नर! ओ नारायण!<br>
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उभय-बन्ध ओ निराधार!<br>
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21:38, 3 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

झँझरे मटमैले प्रकाश के कन्थे
जहाँ-तहाँ कुहरे में लटक रहे हैं।
रंग-बिरंगी हर थिगली
संसार एक।

सीली सड़कों पर कहराती ठिलती जाती
ये अंगार-नैन गाड़ियाँ
बनाती जाती है आवर्त्त-विवर्त्त
अनवरत बांध रहीं
उन अधर-टँके सब संसारों को
एक कुंडली में, जिस पर
होगा आसन
किस निराधार नारायण का?

ये कितने निराधार नर
क्षण-भर हर चादर की ओट उझक
तिर-घिर आते हैं
एक पिघलती सुलगन के घेरे में:
ऊभ-चूभ कर
पुनः डूबने को—
चादर की ओट
या कि गाड़ियों की
अंगार-कगारी तमोनदी में।

ओ नर! ओ नारायण!
उभय-बन्ध ओ निराधार!