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"पेड़ / यह जो हरा है / प्रयाग शुक्ल" के अवतरणों में अंतर

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मकान की ।
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लिए हुए हरापन, परत धूल की,
 
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बूंदें बारिश की । किरणें, चाँदनी ।
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बूंदें बारिश की। किरणें, चाँदनी।
 
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जो दिखती है सबसे
 
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पहले उस पर । टिकती हैं आँखें
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दुखी-सुखी ।
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जो इस वक़्त
 
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तुम रहे हो सोच ।
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तुम रहे हो सोच।
 
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18:27, 1 जनवरी 2010 के समय का अवतरण

टकराता ही रहता है वह पेड़,
दीवारों से,
मकान की।

लिए हुए हरापन, परत धूल की,
बूंदें बारिश की। किरणें, चाँदनी।
और हवा
जो दिखती है सबसे
पहले उस पर। टिकती हैं आँखें
दुखी-सुखी।

देखो, देखो
पेड़ की रगों में भी बह रही
है वह कथा
जो इस वक़्त
तुम रहे हो सोच।