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"वहीं उचटेगी नींद / शलभ श्रीराम सिंह" के अवतरणों में अंतर

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01:23, 4 जनवरी 2010 के समय का अवतरण

हर तिलिस्म टूटता है एक दिन
एक दिन होता है हर जादू बेअसर
छिन्न-भिन्न होता है हर इंद्रजाल
एक न एक दिन
नींद के उचटने पर
 
सपनों को टूटना ही है
अपने बारीक़ से बारीक़
विस्तार के साथ बेवक़्त -बेमुकाम
हर सपने का अपना एक भयानक मोड़ है

वहीं छूटेगी प्रेमिका की बाँह
प्रेमी का कन्धा छूटेगा वहीं
वहीं छूटेगी बच्चे की उंगली
दोस्त का साथ वहीं छूटेगा
वहीं उचटेगी नींद
हर सपने का अपना एक भयानक मोड़ है


रचनाकाल : 1992 साबरमती एक्सप्रेस