भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
छो
पंक्ति 13: पंक्ति 13:
  
 
मेरे होने में है क्या रुस्वाई <br>
 
मेरे होने में है क्या रुस्वाई <br>
ये वो मजलिस नहीं ख़ल्वत ही सही <br><br>
+
वो मजलिस नहीं ख़ल्वत ही सही <br><br>
  
 
हम भी दुश्मन तो नहीं हैं अपने <br>
 
हम भी दुश्मन तो नहीं हैं अपने <br>
पंक्ति 21: पंक्ति 21:
 
आगही गर नहीं ग़फ़लत ही सही <br><br>
 
आगही गर नहीं ग़फ़लत ही सही <br><br>
  
उम्र हर चंद के है बर्क़-ए-ख़िराम <br>
+
उम्र हरचंद कि है बर्क़-ए-ख़िराम <br>
 
दिल के ख़ूँ करने की फ़ुर्सत ही सही <br><br>
 
दिल के ख़ूँ करने की फ़ुर्सत ही सही <br><br>
  

05:24, 26 दिसम्बर 2006 का अवतरण

लेखक: ग़ालिब

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*

इश्क़ मुझको नहीं वहशत ही सही
मेरी वहशत तेरी शोहरत ही सही

क़ता कीजे न त'अल्लुक़ हम से
कुछ नहीं है तो अदावत ही सही

मेरे होने में है क्या रुस्वाई
ऐ वो मजलिस नहीं ख़ल्वत ही सही

हम भी दुश्मन तो नहीं हैं अपने
ग़ैर को तुझ से मोहब्बत ही सही

अपनी हस्ती ही से हो जो कुछ हो
आगही गर नहीं ग़फ़लत ही सही

उम्र हरचंद कि है बर्क़-ए-ख़िराम
दिल के ख़ूँ करने की फ़ुर्सत ही सही

हम कोई तर्क़-ए-वफ़ा करते हैं
न सही इश्क़ मुसीबत ही सही

कुछ तो दे ऐ फ़लक-ए-नाइंसाफ़
आह-ओ-फ़रियाद की रुख़सत ही सही

हम भी तस्लीम की ख़ू डालेंगे
बेनियाज़ी तेरी आदत ही सही

यार से छेड़ा चली जाये "असद"
गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही